व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
समीचीन है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सर्वमानव का धर्म एक ही है।
मानव धर्म परंपरा के रूप में सहज ही अर्पित होता है, प्रवाहित होता है। इसी का नाम संस्कार है। संस्कार का तात्पर्य भी पूर्णता के अर्थ में किया गया कृतियाँ और स्वीकृतियाँ है। ऐसी स्वीकृतियाँ सार्थक होते हैं। इसी का नाम होता है सम्प्रदाय। सम्यक प्रकार से प्रदायन क्रिया, सम्प्रदाय है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा ही पावन रूप में संस्कार है। ऐसी पवित्रता की धारक वाहकता केवल मानव में होना पाया जाता है। इस प्रकार मानव धर्म और मानव सम्प्रदाय सर्वशुभ के अर्थ में सार्थक होता है।
मानवीयतापूर्ण धर्म और सम्प्रदाय क्रियाकलाप में सम्पूर्ण अथवा प्रत्येक मानव का सम्मति अर्पित रहता ही है। इससे स्पष्ट हुई मानव धर्म, संप्रदाय और मत अविभाज्य रूप में गतित रहने वाली सर्वशुभ कार्यक्रम है। इसी के साथ यह भी हम अनुभव किये हैं कि सर्वतोमुखी समाधानपूर्वक ही मानव धर्म और परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था सफल हो जाता है। यही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र भी है। अतएव, हम मानव मानवत्व के प्रति जागृत होना ही एक आवश्यकता है। इसी से सर्वतोमुखी समाधान सबके लिये सुलभ होता है जिससे सार्वभौम शुभ नित्य समीचीन रहेगा।
5. मानव में, से, के लिये यह धरती एक अखण्ड है। मानव भाषा कारण, गुण, गणित के अर्थ में समान है।
शून्याकर्षण की स्थिति में स्वयं स्फूर्त गति सहित एक सौरव्यूह और अनेक सौरव्यूह सहज व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करता हुआ यह सौभाग्यमयी धरती है। इस धरती में