व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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सदा-सदा ही प्रस्तुत करते हैं। इसी क्रम में प्राणावस्था की इकाईयाँ बीज-वृक्ष न्याय से अपने परंपरा रूपी आचरण को सुदृढ़ रूप में आचरित करते हुए देखने को मिलता है। वंशानुषंगीय विधि से सम्पूर्ण जीव अपने-अपने परंपराओं को सुदृढ़ बनाया हुआ दिखाई पड़ता है। इन तथ्यों को देखते हुए मानव अपने परंपरा को मानवीयतापूर्ण आचरण, मानव सहज सर्वतोमुखी समाधान रूपी मानव धर्म (मानवीयतापूर्ण आचरण, विचार, अनुभव सम्मत विधि से) निरन्तरता को पाना संभव है।

सर्वमानव सहज रूप में ही समान है। इसीलिये मानव धर्म सर्वमानव में समान है। यह तथ्य समझ में आता है। सर्वतोमुखी समाधान का तात्पर्य ही है स्वयं व्यवस्था में और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का निर्वाह करना। इसी विधि से मानव अपने में चिरआशित स्वराज्य को पाकर सुख, शांति, संतोष और आनन्द को पाकर; समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को प्रमाणित करता है। यही मुख्य रूप में मानव का चाहत भी है। मूलतः धर्म एक शब्द है। हर शब्द किसी का नाम है। धर्म शब्द से इंगित वस्तु मानव जागृति और उसका प्रमाण रूपी प्रामाणिकता, सर्वतोमुखी समाधान ही है। इसका स्वीकृत स्वरूप ही सुख, शांति, संतोष, आनन्द है। इसका दृष्टा पद में भी सुख, शांति, संतोष आनन्द है। इसका दृश्य रूप ही व्यवस्था है। वह परिवार सभा से विश्व परिवार सभा तक गुँथे हुए स्वरूप में दिखाई पड़ती है। व्यवस्था सहज अभिव्यक्ति ही अथवा फलन ही समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व है। इस प्रकार जीवन सहज लक्ष्य, मानव सहज अर्थात् अखण्ड समाज सहज लक्ष्य, संगीत, विन्यास है, यही समाधान के रूप में निरूपित होती है। सहअस्तित्व और अनुभव में संगीत है। यही आनन्द के नाम