व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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जागृतिपूर्वक उजागर होती है। जागृति का सार्थक स्वरूप अस्तित्व में अनुभव है। अस्तित्व नित्य वर्तमान होते हुए अनुभव का घोषणा, सत्यापन, प्रमाण, मानव ही मानव के लिये अर्पित करता है। प्रामाणिकता ही व्यवहार में सर्वतोमुखी समाधान के रूप में प्रमाणित हो जाता है। अस्तित्व में अनुभव ही जागृति परमता का द्योतक है। जागृति ही भ्रम मुक्ति है। आदिकालीन अथवा सुदूर विगत से सुना हुआ ‘मुक्ति’ शब्द का अर्थ सहअस्तित्व में अनुभव रूप में सार्थक होता है। इसे भली प्रकार से देखा गया है। सहअस्तित्व में अनुभव सर्वसुलभ होने का मार्ग मानवीय शिक्षा-संस्कार विधि से समीचीन है और प्रशस्त है। सहअस्तित्व शाश्वत सत्यरूपी, नित्य सत्यरूपी, परम सत्यरूपी न घटते-बढ़ते हुए मानव सहित अविभाज्य वर्तमान है। इसमें खूबी यही है अस्तित्व ही चार अवस्था में प्रकाशमान है। जिसमें से एक अवस्था स्वयं में मानव है। अस्तित्व सहज सहअस्तित्व ही इसका मूल सूत्र है। सहअस्तित्व ही विकास, पूरकता, उदात्तीकरण, फलस्वरूप रासायनिक-भौतिक रचनाएँ, विरचनाएँ सम्पन्न होते हुए देखने को मिलता है। देखने वाला मानव ही है। विकास, अर्थात् परमाणु में विकास, पूरकता, पूर्णता, संक्रमण, जीवन और जीवन जागृति प्रमाणित होता है। जीवन में जीवन जागृति का प्रमाण मानव ही प्रस्तुत करता है। मानव अपने में जागृतिपूर्णता में उसकी निरन्तरता सहज विधि से ही सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्न परंपरा को बनाए रखना सहज है।

अस्तित्व में इस खूबी को बहु विधा में देखा गया है। प्रत्येक प्रजाति सहज परमाणु अपने परंपरा सहज आचरणों में सुदृढ़ रहते हैं। जैसे - दो अंश, चार अंश, चालीस अंश आदि विभिन्न अंशों से गठित विभिन्न परमाणु अपने-अपने आचरण को