व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
कहीं भी भाग विभाग नहीं है। सभी भाग-विभाग मानव के द्वारा बनायी गयी सीमाएँ है। यह धरती अपने में ठोस, तरल, वायु सहित रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना सहित चारों अवस्था के धारक-वाहक के रूप में प्रतिष्ठित है। हम इस सौर व्यूह में यही एक धरती को सौभाग्य सम्पन्न रूप में देखते हैं अर्थात् चारों अवस्था से सम्पन्न धरती को देख पाते हैं और कहीं ऐसा सौभाग्य सम्पन्न धरती नहीं, ऐसा नहीं है। ऐसा सौभाग्य सम्पन्न धरती हो उसमें से यह भी एक है। अन्य धरती के संबंध में हमें दौड़ने की आवश्यकता नहीं है, यह धरती में आवश्यकीय मानव जागृति, सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज रूपी परंपरा को प्रमाणित करना ही अभी इस धरती का मानव सहज कल्याण मार्ग है। इसका कारण यही है यह धरती को मानवकृत परेशानियों से दूर करने, और प्रकृति सहज नियमों को, जागृति सहज नियमों को नित्य निरन्तर पालन, आचरण और व्यवहार करता हुआ मानव मानस आज प्रमाणित होने की आवश्यकता है। यही सर्व प्राथमिक आवश्यकता है। इसके लिये धरती की अखण्डता और एकता को पहचानना एक आवश्यकता है। यह धरती भी समग्र व्यवस्था में अविभाज्य है। अतएव मानव अपने जीवन सहज जागृति परंपरा रूप में एकता, अखण्डता और सार्वभौमता को पहचानने के योग्य इकाई है। इसमें से एकता अखण्डता का मूर्त रूप यह धरती भी है। इस धरती को स्वस्थ रूप में बनाये रखना तभी संभव है जब मानव परंपरा जागृत हो जाए। भ्रम पर्यन्त अस्वस्थता की कहानी बन चुकी है।
मानव भाषा अपने स्वरूप में कारण, गुण और गणित है। इसे किसी लिपि पूर्वक संप्रेषित करें, इसका फलन एक ही होता है अर्थात् मानव की समझदारी, उसकी परंपरा के लिये भाषा