व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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का संतुलन है। ठोस, तरल, विरल वस्तुओं में सहअस्तित्व, अविभाज्यता, पूरकता संतुलन के ध्रुव पर दिखाई पड़ती है। इस प्रकार धरती के संतुलन की महिमा, उसकी अनिवार्यता अपने-आप में स्पष्ट है तभी मानव इस धरती पर उदय हुआ है।

प्रौद्योगिकी विधि जो उपभोक्तावादी, संचारक्रमवादी, सामरिक तंत्रवादी विधियों से आरंभ हुआ, अभी भी इन तीन कोणों में अपने यांत्रिक उपक्रमों का विस्तार हो ही रहा है। यह सर्वविदित है। इन उपक्रमों के चलते ईंधन संयोजन एक मूलभूत उपक्रम है। ईंधन संयोजन का जो कुछ भी वस्तुएँ हैं वह वन खनिज तेल और खनिज कोयला हैं, जिसको वृहद ईंधन सामग्री मानते आये हैं, इसी का अर्थात् ईंधनावशेष का नकारात्मक प्रभाव पर्यावरण के क्षेत्र में प्रभावित होना भी विदित है। इस प्रकार हम सभी उपभोक्तावादी प्रचूर वस्तुओं को उत्पादन करने के लिये जुड़े ही हैं। इसी सिद्धान्त से शोषण प्रदूषण कार्य से भी जुड़े हुए हैं जो स्वयं किसी व्यक्ति को स्वीकार्य नहीं है। इस तथ्य का इसीलिये यहाँ स्मरण दिलाया कि यह समाजशास्त्र है, सामाजिकता के नजरिये में पर्यावरणीय संतुलन भी एक अनिवार्य आयाम है क्योंकि पर्यावरण संतुलन = धरती का संतुलन = खनिज, वनस्पतियों का संतुलन = ऋतु संतुलन = अन्न-वनस्पतियों, जीवों और मानवों का नित्य संतुलन। इस सूत्र से यह भी पता लगता है कि विज्ञान का इतिहास और वर्तमान में दिखता हुआ पर्यावरणीय परिणाम, दोनों का अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि विज्ञान विधियाँ संतुलन के लिये शुरूआत ही नहीं किया। इनके संतुलन का कोई मापदण्ड आरंभिक विज्ञानियों के हाथ नहीं लगा जबकि जीते-जागते हुए हर ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी, मूर्ख ऋतु संतुलन को