व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
ही है। इन्हीं आस्थाओं पर आधारित प्रलोभनों की श्रेष्ठता बताने वाले वर्ग अथवा इसे आजीविका के लिए उपयोग करने वाले समुदाय आस्थावादी प्रलोभनों का उपदेश देते व्रत, नियम, उपवास, अभ्यास, अर्चना, प्रार्थना, योग, जप, यज्ञ, तप आदि उपायों को सुझाते हैं। सर्वाधिक ऐसे उपदेश करने वाले व्यक्ति को हम इसी स्वरूप में पाते हैं। जैसे - आस्थावादी प्रलोभन के अनुसार अपूर्व यान, वाहन, भोगद्रव्य साधन सभी बिना कुछ किये मिलने का आश्वासन प्रकारान्तर से सभी धर्म गाथाओं में, उपदेशों में बताया जाता है। इसके आगे भी स्वर्ग सुख से आगे मोक्ष सुख को बताया है। उसे अनिर्वचनीय कहकर छोड़ दिया है। उसके लिये भी विविध साधना शैली बता चुके हैं। विद्वान मेघावियों को विदित है। चाहे आस्थावादी बनाम स्वर्गवादी प्रलोभन हो, अथवा वस्तुवादी प्रलोभन हो, कामना तृप्ति, अथवा इन्द्रिय लिप्सा के अर्थ में क्यों न हो, मूल मानसिकता एक ही है। इसमें मौलिक अन्तर क्या है? मौलिक अन्तर यही मूल्यांकन करने को मिला कि आस्थावादी प्रलोभन इस शरीर यात्रा में अथवा इस शरीर के द्वारा अपराध कार्यों में, हिंसक कार्यों में भागीदारी को अस्वीकार किया रहता है। ऐसी आस्थावादी प्रलोभन का उपदेश देने वाले ढेर सारी वस्तुएँ एकत्रित किये ही रहते है। इसे उपदेश का फल, ईश्वर का देन मानते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आस्थावादी प्रलोभन से प्रभावित व्यक्ति थोड़े समय तक अथवा अधिक समय तक संग्रह, सुविधा, हिंसा कार्यों से दूर रहना पसंद किये रहते हैं। वही व्यक्ति जब उपदेशक हो जाता है, उस समय में संग्रह-सुविधा को हक मान लेता है, फलस्वरूप उससे संबंधित सभी गुण उनमें होना पाया जाता है। नकारात्मक पक्ष के गुणों का भी होना पाया जाता है। अन्य जो संग्रह-सुविधा भोग से लिप्त