व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
मान्यतावश धीरे-धीरे कुछ लोगों को धर्म से अरूचि होती रही। कालान्तर में वैज्ञानिक युग प्रारंभ हुआ। वैज्ञानिक अनुसंधानों की सार्थकता सटीकता जनमानस तक पहुँचने लगी। फलस्वरूप स्वर्ग में वर्णित अधिकांश सभी वस्तुयें पैसे से खरीदने की स्थिति बनी। प्रतीक मुद्रा पत्र मुद्राओं के रूप में मुद्रा प्रचलन बना। प्रतीक मुद्रा संग्रह के लिये सरल हो गया। आस्थाओं में ढिलाई व्यक्तियों में बढ़ते आया। इसका प्रमाण राजगद्दियाँ, धार्मिक राज्यनीति से आर्थिक राज्यनीति में अन्तरित हुआ। धार्मिक राज्यनीति पर आधारित राज्यनीतियाँ बदलता गया। अभी सर्वाधिक राज्य आर्थिक राज्य के रूप में अन्तरित हो चुके हैं। इसी क्रम में जनमानस आर्थिक लाभ की ओर बढ़ा; व्यापार पहले से ही लाभवादी रहा है। धर्म गद्दियाँ भी मुद्रा संग्रह के पक्ष में उतर गयी। मुद्रा के आधार पर अधिकांश ज्ञानी, विद्वान, परमार्थी होने की उम्मीद करते हैं। इतना ही नहीं धर्म गद्दियाँ पैसे की मानसिकता का पक्षधर हुई। ज्ञान पूर्वक पाप मुक्ति, स्वर्ग मुक्ति का आश्वासन मुद्रा के आधार पर विलास में खो गया है।
निष्कर्ष - सम्पूर्ण प्रकार के धर्मों का कार्यरूप रहस्यमूलक आश्वासन, उपदेश, रूढ़ी, मान्यता व प्रतीकों पर आधारित होना रहा। मानव सहज शुभकामना (सुख आश्वासनों के रूप में बताया जाता रहा है) की असफलता की पीड़ा, समाधान की आवश्यकता के रूप में बढ़ी। अर्थात् राज्य और धर्म का प्रभाव, सुख कामना का जनमानस में उदय होने में उपकार किया है। यह एक सकारात्मक पक्ष है। इसी दौरान किया गया मन भेद द्वेष, विद्रोह, द्रोह, युद्ध, शोषण, लूट, विध्वंस, घृणा, उपेक्षा, प्रायश्चित रूपी हिंसा ये नकारात्मक पक्ष है।