व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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ये चारों प्रकार की असमानताएँ राज्य, धर्म और परंपरा की ही देन हैं, क्योंकि राज्य और धर्म प्रभावशाली परंपरा रही हैं। इस धरती पर चारों प्रकार से सम्पन्नता-विपन्नता का चौखट बना ही है जिसे मानव भोग रहा है। इस धरती में देखा गया है कि राज्य-राज्य की परस्परता में विरोध सदैव बना ही है। धर्म-धर्म की परस्परता में वाद-विवाद या विरोध बना ही है। ऐसी स्थिति में चौमुखी असमानता निराकरण कैसे हो यह भी अनुसंधान-शोध का मुद्दा है। इन्हीं अनुसंधान द्वारा जनमानस के सब प्रश्नों का समाधान सर्वशुभ होना चाहिए या नहीं चाहिए? चौमुखी असमानता दूर होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए? सर्वतोमुखी समाधान चाहिए या नहीं चाहिए? इन सभी प्रश्नों का सकारात्मक उत्तर जिससे मिलता है उसे अपनाना ही सर्वशुभ है।

क्या समाज का मूल रूप समग्र मानव होगा या नहीं होगा? यह भी विचारणीय बिन्दु है। जबकि समग्र मानव ही अखण्ड समाज का आधार है तब, अभी तक विद्वान विचारकों को इसे पहचानने में क्या अड़चने रहीं? यह सब विचारणीय बिन्दु और प्रश्न चिन्ह हैं। अभी तक परंपरा में समुदायों को समाज माना गया है। इन सब मुद्दों के मूल में मानव का अध्ययन न हो पाना है। मानव समाज में मानव का कार्य व आचरणों के निश्चयन का आधार क्या है?

राज्य और धर्म से अब तक जो उपकार हुआ है; इसके लिए कृतज्ञ होना आवश्यक है। धर्म और राज्य मानव कुल में निश्चित समाज आश्वासन के साथ आरंभ हुआ है। इसकी गवाही में इन उल्लेखों को देखा जा सकता है, कि सभी धर्म ग्रन्थों में अज्ञान स्वयं ही दुख है। अज्ञान को ज्ञान में, पाप को पुण्य में, स्वार्थ को परमार्थ में परिवर्तित करने के लिए