व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
रहते हैं उसे धार्मिक उपदेशों और उसमें भरोसे के अनुसार पुण्य का फल माने ही रहते हैं। इसी कारणवश संग्रह-सुविधा सम्पन्न वर्ग, संग्रह-सुविधायें सम्पन्न उपदेशकों का सम्मान करते आये हैं। जिनके पास संग्रह-सुविधायें नहीं है उनमें से कुछ हतप्रभ होकर ऐसे उपदेशकों को सम्मानित करने के लिये इच्छाओं से सम्पन्न होते हैं, और कुछ लोग सम्मानित करने योग्य न होने के कारण अपने को कोसते भी हैं, धिक्कारते भी हैं, कुण्ठित भी होते हैं। इस विधि से उपदेश ग्रंथ सम्मान के योग्य हुआ है। ऐसे ग्रन्थों के आधार पर किये जाने वाले उपदेशकों को सम्मानित करने की परंपरा बनाये हैं। इसी परंपरा क्रम में जिस उपदेशक का उपदेश गद्दी, संग्रह, सुविधा सम्पन्न रहता है उसी को सर्वाधिक पुण्य का फल माना जाता रहा है। ये सब पाप-पुण्य का नजरिया या आस्थावादी प्रलोभन का प्रारूप बताया गया है।
इस धरती पर सुविधा संग्रह प्रक्रिया का अध्ययन करने से पता चलता है कि संग्रह-सुविधायें प्रौद्योगिकी व्यापार से होता हुआ देखने को मिलता है। व्यापार और प्रौद्योगिकी के लिए धरती के ऊपर और धरती में निहित सम्पदा ही एकमात्र स्रोत होना सबको दिखती है। धरती के ऊपर वन खनिज होते हैं, धरती के अन्दर खनिज होते हैं। ऊपर जो खनिज और वन रहते हैं उनमें से कुछ आवर्तनशील रहते हैं, कुछ आवर्तनशील होते नहीं। जैसे वन-वनस्पतियाँ बीज-वृक्ष नियम विधि से आवर्तनशील होते हैं, मृद्-पाषाण, मणि-धातुओं के रूप में और मणि-धातुएँ, मृद्-पाषाणों के रूप में भी परिवर्तित होता हुआ देखने को मिलता है। इसी के साथ महिमा सम्पन्न मुद्दा यही है धरती अपने वातावरण सहित धरती सम्पूर्ण है। वातावरण का संतुलन अपने आप में वायु का संतुलन है, धरती का संतुलन ठोस और तरल-विरल पदार्थ