व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
देखते ही है। जिस देश और ऋतु काल में जो-जो अन्न वनस्पतियाँ, पेड़-पौधे और वन पुष्ट होता है वे सबको दिखता ही है। यही मुख्य बात है। इस प्रकार धरती का संतुलन बनाम ऋतु संतुलन का क्रम के चलते जीव व वनस्पतियों में संतुलन को देखा गया। धरती के साथ मानव द्वारा किया हुआ कार्यकलाप को देखते हुए मानव स्वयं संतुलित रहा या नहीं रहा इस बात को सोचने के लिये हम बाध्य होते हैं। पहले इस बात को बताया जा चुका है कि विज्ञान विधि से धरती के संतुलन का मापदण्ड उल्लेखित नहीं है और सकारात्मक विधि से मानव ही इसे तय कर सकता है।
इस शताब्दी के दसवें दशक तक मानव ने अनेक समुदाय या भाँति-भाँति समुदाय परंपरा के रूप में अपने-अपने को प्रकाशित किया है। जिसमें जागृति का संकेत भय, प्रलोभन, आस्था, प्रिय हित, लाभ, सुविधा, संग्रह, भोग इन नौ बिन्दुओं में अवसर आवश्यकता और चित्रण के रूप में प्रस्तुत हो पाया।
प्रिय = इन्द्रिय सापेक्ष प्रवृत्ति प्रक्रिया।
हित = स्वास्थ सापेक्ष प्रवृत्ति प्रक्रिया।
लाभ = ज्यादा लेने कम देने की प्रवृत्ति प्रक्रिया।
भय = भ्रम = अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति दोष।
प्रलोभन = संग्रह, सुविधा, भोग, अतिभोग प्रवृत्ति प्रक्रिया।
आस्था = किसी के अस्तित्व को न जानते हुए मानना (स्वीकारना)।
सुविधा = सौन्दर्य कामना सहित, इन्द्रिय लिप्सा समेत उपभोग करना।