व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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इससे यह स्पष्ट हो गया है कि पीढ़ी से पीढ़ी को परंपरागत चारों प्रयासों से जैसा शिक्षा, संस्कार, संविधान, व्यवस्था के नाम से जो कुछ भी दिये जा रहे हैं इससे अभी तक इस देश धरती में परम सत्यबोध, परम समाधानबोध, परम न्यायबोध करने-कराने और करने के लिए मत देने का आधार ही नहीं बन पाया है, अर्थात् ऊपर वर्णित चारों आयामों में वांछित, सर्ववांछित, सर्वदा वांछित उक्त तीनों तथ्यों को स्पष्ट करने में असमर्थ है। समुदाय परंपरा के रूप में ही हम सब पलते आये हैं और पहुँच गये हैं संग्रह-सुविधावादी उपभोक्ता मानसिकता स्थली में। अभी तक पहुँचा हुआ लोगों का सामान्य गणना 15% उससे कम ही मानी जाती है। चाहने वाली प्रतिशत 85% शेष है। यह धरती में निवास करने वाले संपूर्ण मानव के संदर्भ में कहा जा रहा है। ऐसे 10% से 15% संख्या में जो लोग आते हैं संग्रह-सुविधा के चोटी की ओर दौड़ रहे हैं। उल्लेखनीय बिन्दु यही है कि इसका तृप्ति बिन्दु अस्तित्व में नहीं है। इस विधि से संग्रह-सुविधावादी सम्मोहन और उन्माद अन्तविहीन वितृष्णा की ओर ले जाता है। एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि इस धरती में 15% वे लोग जो संग्रह-सुविधा में लिप्त है उन्हीं को उन्हीं के लिये यह धरती कम पड़ गई है। उनके लिए इस धरती की वन सम्पदा, खनिज सम्पदा और श्रम सम्पदा कम पड़ गई है बाकी 85% के लिये ये सब सम्पदायें और उसका विधिवत् शोषण कार्य का स्रोत कहाँ है? इस प्रकार मानव सुविधा, संग्रह, शोषण, उपभोक्ता (उन्मुक्त भोग, संस्कृति प्रवृत्ति उन्माद) विधि से निग्रह बिन्दु के कगार में है। इसलिए स्वायत्त सर्वतोमुखी समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व क्रम को अपनाना ही एक मात्र उपाय है। ऐसा उपाय इसीलिए प्रस्तावित है इस धरती पर मानव परंपरा विश्वस्त