व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
को समझना और समझाना ही होगा। अन्यथा इस धरती पर रहना ही नहीं होगा। पीड़ा और अपेक्षा के बीच नित्य नवीन मनमानी और किल्लोल करते ही आ रहे हैं। किल्लोल का तात्पर्य मानव परंपरा का चारों आयाम जैसा शिक्षा, संस्कार, संविधान और व्यवस्था वही अपेक्षा वही पीड़ा के साथ दिखाई पड़ती है। अपेक्षा के अनुरूप शाश्वत वस्तु न मिलने की स्थिति में मानव अपनी कल्पनाशीलता के चलते, प्रभावशील होते तक कुछ भी कर रहा है, कर लिया, कुछ भी कह लिया, कह रहा है, कुछ भी सोच लिया, सोच रहा है, इस विधि से चल गये। इसमें यह भी एक परीशीलन किये हैं। मानव परंपरा को मानव नकारना भी बन नहीं पा रहा है। जबकि परंपरा सहज स्थिरता के स्थान पर अस्थिरता के लिये चारों आयामों को सजा चुका है। अस्थिरता के लिये अनिश्चियता एक प्रधान मान्यता है। यह अनिश्चयता, अस्थिरता मानने के उपरान्त ही मानव कुछ भी मनमानी करने को तत्पर होता है। जब एक परमाणु, अणु, अणुरचित रचना, ग्रह-गोल, सौर व्यूह, अनंत ब्रह्माण्ड अथवा अनंत प्रकृति सतत क्रियाशील है। मानव कैसे चुप रहेगा? इसी कारणवश मानव को कितना भी चुप रहने के लिये कहने के उपरान्त भी कुछ भी करने को तैयार हो ही जाता है। ऐसी मानव सहज प्रवाह में कल्पना सहज विधि से ही चारों आयामों को अपनाते ही आया। जैसे नौ संख्या, चारों दिशा, नैसर्गिकता (धरती, हवा, पानी, उष्मा) इसको पहचानते ही आया है। इसी प्रकार पाँचों ज्ञानेन्द्रिय, इन्द्रिय सन्निकर्ष को भी पहचानते ही आया। अर्थात् इन्द्रिय सन्निकर्ष के आधार पर मानव सुविधा संग्रह के चक्कर में फँस गया। यही मूलतः धरती क्षतिग्रस्त होने का कारण रहा है।