व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
एवं आश्वस्त विधि से सदी से सदी, युगों से युगों तक जागृति पूर्ण योजना कार्यक्रम सम्पन्न प्रणाली, पद्धति, नीति पूर्वक ज्ञानावस्था के सहज वैभव को प्रमाणित करने सहज आशय से है। हमारा सम्पूर्ण निष्ठा सहज रूप में ही मानव सर्वदा शुभ चाहने वाला है। वह भी सर्वशुभ चाहने वाला है। यही कारण रहा इस प्र्रस्ताव को अर्थात् व्यवहारवादी समाज जिसका स्वरूप सार्वभौम एवं अखण्ड व्यवस्था है, का ही यह प्रतिपादन और प्रस्ताव है।
परम सत्य के रूप में सहअस्तित्व दर्शन सहज ही अध्ययनगम्य हुआ है। जीवन ज्ञान, दृष्टा पद-प्रतिष्ठा, और उसकी आपूर्ती और उसकी निरंतरता क्रम में अध्ययनगम्य हो चुका है। इसीलिए शिक्षा, शिक्षा पूर्वक व्यवहार और कर्माभ्यास सहित प्रमाणित होना पाया गया है। इस शास्त्र में पहले ही जीवन ज्ञान और अस्तित्व दर्शन संबंधी स्वरूप को सर्वविदित होने के अर्थ से प्रस्तुत किया है। यह भी विदित हुआ है कि जीवन ज्ञान ही परमज्ञान, अस्तित्व दर्शन ही परम दर्शन और मानवीयतापूर्ण आचरण ही परम आचरण है।
1. मानव सहज जाति एक - अखण्ड समाज ज्ञान, विवेक, विज्ञान, प्रयोजन, भाषा, कार्य-व्यवहार में, से, के लिये जाति पक्ष पर विचार करना एक आवश्यक मुद्दा है। जाति कल्पना लोकव्यापीकरण होकर विविधतापूर्वक पनपते आई। अनेक जाति कल्पना के आधार पर अनेक समुदाय ही होना पाया गया। ऐसी समुदाय और समुदाय कल्पनाओं में से अखण्डता का सूत्र निष्पन्न नहीं हुआ। जबकि मानव परंपरा का अस्तित्व अखण्डता और उसकी व्यवहारिक मानसिकता के साथ ही वर्तमान में विश्वास, स्वयं में विश्वास सहज विधि से भविष्य में, से, के लिये मानवीयतापूर्ण योजनाओं से सम्पन्न