व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
होकर आश्वस्त होने की व्यवस्था है क्योंकि प्रत्येक मानव देश और कालवादी परिज्ञान से सूत्रित रहता ही है।
यहाँ-वहाँ के आधार पर देश, व अब-तब के आधार पर कालवाद मानव में घर किया हुआ देखा जाता है। देश, काल संबंधी सीमाओं की आवश्यकता मानव में, से, के लिये वर्तमान में विश्वास करने, कराने, करने के लिये मत देने के आधार पर ही इनकी विवेचना, व्याख्या सूत्रित है। वर्तमान देश, जहाँ जो रहता रहा उसे पहचानने के आधार पर, वर्तमान काल, जब जो अपने कार्य-व्यवहार, स्थिति, गति का प्रमाण प्रस्तुत किया इसे चिन्हित विधि से पहचानने के क्रम में काल की महत्ता, उपयोगिता को पहचाना जाता है। इसकी भरपाई में शिलालेख, ताम्रलेख, कालपत्र, स्मारक और वांङ्गमयों को पहचाना गया है। यह भी समझा गया है हर घटना जो मानव से अथवा प्रकृति सहज विधि से घटित हुआ करता है इन्हीं सब को किसी देश-काल में ही इंगित करना संभव है। इसलिये देश-काल का ज्ञान-परिज्ञान आवश्यक है।
हर मुद्दे पर आवश्यकता और अनावश्यकता का निर्णय हम इस विधि से पाते हैं कि निश्चित लक्ष्यगामी स्थिति-गति के लिए प्रेरक, सहायक होने के सभी तथ्यों को आवश्यकता के अर्थ में और इसके विपरीत अर्थात् लक्ष्य के विपरीत सभी प्रकार की देशकाल में हुई घटनाएँ मानव परंपरा के लिये अनावश्यक है। सम्पूर्ण मानव का मूल लक्ष्य इसकी अक्षुण्णता, अखण्डता सार्वभौमता ही है। इसका प्रमाण स्वरूप समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व है। यह दायित्व, कर्तव्य, संज्ञानशीलता, संवेदनशीलता पूर्वक हर मानव में, से, के लिये समान रूप में आवश्यक और समीचीन होना और सार्थकता का मूल्यांकन होना तथा नित्य उत्सव होना पाया