व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
जीवावस्था के स्मरण में मानव अपने को अनेक समुदायों में बाँटकर स्वयं परेशान है ही और धरती का शक्ल बिगाड़ दिया।
मानव जाति की एकता, अखण्डता, अक्षुण्णता मानव इसीलिए समझ सकता है मानव ही ज्ञानावस्था की प्रतिष्ठा है और प्रत्येक मानव जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने योग्य इकाई है। इन दोनों कारणों से मानव प्रतिष्ठा को मौलिक रूप में पहचाना जाता है।
इसलिये भी मानव जाति एक होने का सूत्र सार्वभौम व्यवस्था है। यह सर्वतोमुखी समाधान सहज अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन ही है। यह मानवीयतापूर्ण मानव सहज प्रमाण है। इसका स्वरूप स्वायत्त मानव से परिवार मानव और परिवार सभा, ग्राम परिवार सभा और विश्व परिवार सभा क्रम में समाज के चारों आयाम और व्यवस्था के पाँचों आयामों में सामरस्यता सहज प्रमाणों को अक्षुण्ण बनाये रखे जाना स्पष्ट किया जा चुका है। मानव का वैभव प्रतिष्ठा और अपेक्षा अनुपम संगीत चेतना विकास मूल्य शिक्षा से ही अपने-आप सर्वसुलभ होता है। इस विधि से भी अर्थात् परिवार मूलक स्वराज्य विधि से सार्वभौमता का अर्थ सार्थक होता है। इसलिये भी मानव जाति एक होना पाया जाता है।
मानव ही प्रामाणिकता और उसकी निरंतरता को अथवा परम जागृति और उसकी निरंतरता को बनाए रखने में योग्य है और आवश्यकता है क्योंकि प्रत्येक मानव जागृतिपूर्वक स्व वैभव को प्रमाणित करना चाहता है, प्रमाणित होना समीचीन है। इन्हीं तथ्य के आधार पर मानव सहज सार्थकता अथवा परम सार्थकता को ध्यान में रखते हुए विश्लेषण और विवेचना करने पर सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि