व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
ही मानवीयतापूर्ण आचरण का मूल्यांकन हो पाता है। मानवीयतापूर्ण आचरण विधि से समस्त मूल्य, मानवीय चरित्र और नैतिकता का अविभाज्यता प्रमाणित होता है। दूसरे विधि से मूल्य, चरित्र, नैतिकता में, से, के लिये हर व्यक्ति प्यासा है। इसलिये समझदारी का फलन रूपी मानवीयतापूर्ण आचरण विधि से मानव जाति का एकता, अखण्डता, व्यवस्था विधि से सार्वभौमता प्रमाणित होती है। इसी विधि से प्राकृतिक, नैसर्गिक और मानवीय संबंधों में समझदारी, ईमानदारी पूर्वक निर्वाह करने की संभावना समीचीन हो गई है, आवश्यकता तो है ही।
2. सर्वमानव में मानवत्व समान - मानवीयतापूर्ण आचरण मूल्य, चरित्र, नैतिकता के अविभाज्य रूप में वर्तमान होना पाया जाता है। सर्वमानव में मानवत्व ही व्यवस्था का सूत्र है। मानवत्व अपने में स्वायत्तता ही है। उसके प्रमाण में आचरण एक अनिवार्य स्थिति है। मानवत्व जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण का संयुक्त स्वरूप है क्योंकि मानव ज्ञानावस्था की इकाई है। ज्ञानावस्था का तात्पर्य ही है जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना। यह महिमा केवल मानव में संभावित, कार्यान्वित, इच्छित है। हर मानव अज्ञात, अप्राप्त, पीड़ाओं से मुक्ति चाहता है। ऐसे वैभव अर्थात् पीड़ा से मुक्त वैभव जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान के रूप में दृष्टव्य है। ऐसे वैभव का अधिकार सम्पन्नता स्वयं मानवत्व है।
अस्तित्व में प्रत्येक एक अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था है जैसे गाय, घोड़ा, बिल्ली सबमें उन-उनका ‘त्व’ देखने में मिलता है। गायत्व ही गाय का, श्वानत्व ही श्वान का, बिल्वत्व ही बिल्व वृक्ष का, धातुत्व ही धातु का एवं मणित्व ही मणि के पहचान