व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
पहचान सकता है, निर्वाह कर सकता है। इस प्रकार अखण्ड समाज के अर्थ में और सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में, विविध प्रकार से भ्रमित हुई अपने पराये की दूरियाँ अपने आप जागृति विधि-विधानपूर्वक समाप्त होंगे।
3. सर्वमानव में शुभाकांक्षा समान - मानव शुभ चाहता ही है, करता ही आया है। यह भी पहले स्पष्ट हो चुका है कि आस्था से इंगित स्वर्ग और नर्क; प्रलोभन और भय का ही प्रतीक है। इन दोनों से भिन्न और कोई चीज देने की चाहत वांङ्गमयों में इंगित होता हो वह किसी भी परंपरा में प्रमाण के रूप में वर्तमानित नहीं हो पाये हैं। आज का मानव किसी न किसी परंपरा में ही अपने को अर्पित किया है। परस्पर परंपराओं में भय, प्रलोभन, आस्थाओं में जो अंतर्विरोध है, दीवालों के रूप में है। शुभ चाहते हुए विरोधों को पाल रखना विविध परंपराओं के अनुसार किंवा धर्म संविधान, राज्य संविधान, में भी इनकी पहचान, विविधता की पहचान, प्राथमिकता की चर्चा बनी हुई है। इसीलिये शुभ चाहते हुए शुभ घटित न होने में दूरी अभी भी बनी हुई है। इस वर्तमान समय में अधिकांश मानव इस दूरी को मिटाने के लिए इच्छुक है। ऐसे दूरियों को वरदान के स्थान पर अभिशाप के रूप में पहचान चुके हैं। यही अग्रिम परिवर्तन की चिन्हित पहचान है। अग्रिम परिवर्तन की पहचान स्वाभाविक रूप में अनुभव, व्यवहार और तर्क संगत होना एक आवश्यकता बन चुकी है। अधिक संख्यात्मक मानव इस धरती पर सर्वशुभ के पक्षधर हैं। उसके लिये समुचित मार्ग, विचार, ज्ञान, प्रमाणों को जाँच पूर्वक अर्थात् परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक अपनाना चाहते हैं, स्वीकारना चाहते हैं। यही सूत्र परिवर्तन के चाहत को सम्भावना के रूप में परिणित करता है। इसका आधार अनेक समाज सेवी संगठन जैसा मानवाधिकार संस्था अलग-अलग