व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

Back to Books
Page 93

नामों से विभिन्न पक्षों में कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। यह अभी तक जिन संविधानों अर्थात् धर्म संविधानों, राज्य संविधानों में क्रूरता, विकरालता, अश्लीलताओं को कम अथवा दूर करने में अपने को बारम्बार दुहराता है। साथ ही युद्ध प्रभाव से जो वीभत्सता है, प्राकृतिक प्रकोपों से त्रस्त मानव, अकाल, दुष्काल, और विशेष रोगों से पीड़ित एड्स जैसे रोग पीड़ित व्यक्तियों के प्रति अपने संवदेनाओं को अर्पित करते हुए इन्हें सांत्वना देने का घोर प्रयास करते आया है। इन सब प्रयासों को देखते हुए इनके मूल में अवश्य ही एक सार्वभौम व्यवस्था की अभिव्यक्ति की आवश्यकता बनी हुई है। इस ओर सार्वभौम व्यवस्था जैसा धरती में एक व्यवस्था की चर्चा, पहल, प्रयास भी लोगों ने किये हैं। जो ऐसे प्रयास किये हैं उनमें मानव, मानवत्व, सार्वभौम व्यवस्था का रूप रेखा, मानसिकता, विश्व दृष्टिकोण सहित प्रस्तावित होना प्रतिक्षित है।

ऐसे ‘मानवाधिकार’ धरती पर एक शासन, विचार या चर्चा, मेधावी मानवों के साथ जुड़ा है। हमारा यह प्रस्ताव है कि इसे सफल बनाने के लिये विश्व दृष्टिकोण संबंधी विकल्प आवश्यक है। इस विधा में अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिंतन ज्ञान प्रस्तावित है। इसी क्रम में जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन सहज ही अध्ययन किये हैं। यह पूर्णतया दर्शन और ज्ञान के रूप में, पूर्वावर्ती दर्शन-ज्ञान के विकल्प के रूप में प्रस्तावित है। अस्तित्व ही स्वयं सहअस्तित्व, नित्य विद्यमान होने के आधार पर सहअस्तित्व स्वयं विचार का आधार, फलित होने का क्रम हमें अध्ययनगम्य हुआ है। विचारधारा जो पूर्ववर्ती क्रम में प्राप्त है उसके स्थान पर सहअस्तित्ववादी विचारधारा को प्रस्तावित किया है। अभी तक जो-जो शिक्षाएं इस धरती के मानव के साथ बीत चुकी