व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
प्रयत्न करता है और बताता है। देखा हुआ वही रहता है जहाँ वह शरीर यात्रा को आरंभ करता है वहीं के घर-द्वार, आदमी, कुत्ता, बिल्ली, बड़े बच्चे, आकाश, धरती, सड़क ये सब देखा ही रहता है। घर के सभी सदस्यों को पहचाना ही रहता है। इस विधि से बताने की सामग्री हर बच्चे में बोलने के पहले से बना ही रहता है। इससे पता चलता है कि अभिभावक, प्रौढ़, बुजुर्ग, उनके जितने भी पुरूषार्थ कार्यकलाप, सम्भाषण, विशेषकर दृश्यमान जो देखे रहते हैं, श्रुतिमान जो सुने रहते हैं, सत्यवक्तता का आधार होना पाया जाता है। जैसे-जैसे बड़े होते हैं भाषा कोई सत्य नहीं है यह पता लगता है। भाषा से इंगित कोई वस्तु होना चाहिये इस मुद्दे पर जब जूझना शुरू होता है तो परंपरा विविध मुद्रा से प्रस्तुत होता है। फलस्वरूप अपने मनमानी अथवा परंपरा की रूढ़ियों के अनुसार चलता है। पुनः अपने ही संतान को ऐसा कुछ विरासत में दे जाता है। पहले यह भी स्पष्ट किया गया है राजगद्दी परंपरा से, धर्मगद्दी परंपरा से, शिक्षा गद्दी परंपरा से और व्यापार गद्दियों से सत्य सहज निष्कर्ष न निकलना ही मुख्य बात है पुनर्शोध का। इसी प्रकार धर्म और सत्य का मूल रूप किसी मानव संतान को समझ में न आकर रूढ़ियों के तहत अथवा किसी न किसी रूढ़ि के तहत अपने को समेट लेता है। शिशुकालीन देखी हुई, सुनी हुई सत्य वक्तव्य समय के अनुसार बदलते हुए स्थितियों को देखकर सत्य सदा ही अर्थ विहीन पीड़ा का कारण बना ही रहा।
ऊपर कहे अनुसार सत्य संबंधी पीड़ा और अपेक्षा के साथ-साथ मानव जाति पीढ़ी से पीढ़ी, सदी से सदी, युग से युग बीतता-बीताता इस धरती पर यात्रा मोड़ अब ऐसी पेचीदा हो गई है जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है। इस धरती पर आदमी को रहना है युगों सदियों तक, तब सत्य सहज वैभव