व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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और जीवन सहज दस क्रियाओं के रूप में चैतन्य प्रकृति प्रमाणित होना पाया जाता है। इसी आधार पर ज्ञानावस्था चैतन्य प्रकृति में है ही, जड़ प्रकृति रूपी शरीर का संचालन जीवन ही सम्पन्न करता हुआ देखने को मिलता है। जीवावस्था में समृद्ध मेधस यथा सप्त धातुओं से रचित शरीर रचनाओं को जीवन संचालित कर पाता है। जीवावस्था और ज्ञानावस्था का अंतर इतना ही है कि जीवावस्था में शरीर रचना विधि के अनुसार (वंशानुषंगीयता) जीवन अपने को प्रकाशित करने में बाध्य है। जबकि ज्ञानावस्था के मानव में यह देखने को मिलता है कि कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता विधि से कर्म करते समय स्वतंत्र और फल भोगते समय परतंत्र विधि से न्याय का अपेक्षा, सही कार्य-व्यवहार करने की इच्छा, सत्यवक्ता के रूप में शरीर यात्रा आरंभ काल से देखने को मिलता है। इसलिये मानव समझ के करने योग्य इकाई के रूप में दिखाई पड़ता है। यही संस्कारानुषंगीय इकाई होने का साक्ष्य है। इस मुद्दे पर हमारा सर्वेक्षण के अनुसार 99% सही उतरती है। यह भी हम अनुभव किये हैं कि हर सर्वेक्षण कार्य में परीक्षण, निरीक्षण क्षमता का जागृत रहना आवश्यक है।

न्याय का याचक होने का परीक्षण इस प्रकार किया गया है कि समान आयु के चार बच्चे हों, एक-एक फल दें, उसमें ज्यादा देर तक उनमें संतुष्टि का होना देखा जाता है। उनमें से कोई एक जल्दी खाले अथवा गुमा दे, तब दूसरे के हाथ वाले की ओर देखने और दौड़ने-पाने की इच्छा को व्यक्त करने की बात किसी-किसी में होता है, किसी में नहीं होता है। ज्यादा से ज्यादा 40% में होता है। इसे 10 बच्चों के बीच में देखा गया है। तीसरे स्थिति में 10 में से किसी एक को दो फल दे दिया उस स्थिति में बाकी 9 में से कोई न कोई