व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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होना पाया जाता है। और व्यवहार के लिये हर स्वायत्त मानव; संबंध दृष्टा, मूल्य दृष्टा होना पाया जाता है। जानने, मानने, पहचानने की विधि से संबंधों का पहचान होना पाया जाता है। उसकी स्वीकृति के फलन में जीवन सहज अक्षय शक्ति, अक्षय बल रूपी ऐश्वर्य; मूल्यों के रूप में एक दूसरे के लिये स्वीकार्य योग्य रूप में आदान-प्रदान होता है। यही मानव संबंध और मूल्यों का तात्पर्य है। ऐसे संबंधों को सात रूप में पहचाना गया है। और मूल्यों को क्रम से जीवन मूल्य को चार स्वरूप में, मानव मूल्य छैः स्वरूप में, स्थापित मूल्य नौ स्वरूप में, शिष्ट मूल्य नौ स्वरूप में और वस्तु मूल्य दो स्वरूप में समझ सकते हैं।

अस्तित्व में सम्पूर्ण वस्तु है। वस्तु का अभिप्राय वास्तविकता को वर्तमान में प्रकाशित करना है। वस्तु जैसा है वही उसकी वास्तविकता है। हर वस्तु अपने में सम्पूर्ण होना पाया जाता है। हर वस्तु अपने सम्पूर्णता में ही वस्तु है। हर वस्तु अपने संपूर्णता में यथार्थता, वास्तविकता और सत्यता के रूप में है। कोई भी वस्तु का नाश नहीं होता है इसीलिये अस्तित्व सहज सत्यता प्रमाणित है। रूप और गुण के अविभाज्यता में वास्तविकता; रूप, गुण और स्वभाव के अविभाज्यता में यथार्थता और रूप, गुण, स्वभाव और धर्म के अविभाज्यता में हर वस्तु सहज सत्यता को पहचाना जाता है। इसी आशयों के आधार पर त्रिआयामी अध्ययन प्रत्येक एक के सम्पूर्णता के लिये सीढ़ियाँ अथवा क्रम समझा जाता है। इसी क्रम में पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था में वैभवित सम्पूर्ण वस्तुओं का अध्ययन सहज सुलभ है। चारों अवस्थाओं में रूप आकार, आयतन, घनता के अर्थ में गण्य होता है। चारों अवस्थाओं का स्वरूप जड़-चैतन्य प्रकृति ही है। भौतिक-रासायनिक रूप में जड़ प्रकृति