व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
कुछ भी विधि से अनेक, अनंत टुकड़े में बांटने के उपरान्त रचना के दौरान जितने द्रव्य वस्तुएँ रहती हैं वे सब उतने ही रहते हैं। यही मुख्य रूप में रचना-विरचना के रूप में देखने की विधि है। इसे सम्पूर्ण, व्यक्ति देखता ही है या देख सकता है। रचना-विरचना स्वयं इस बात का द्योतक है। कोई रचना अमर नहीं है। यह ध्वनि अपने आप से निष्पन्न होती है। यह स्मरण में रखने योग्य तथ्य है कि सम्पूर्ण रचना-विरचनाएँ, किन्हीं ग्रह-गोल पर ही होना पाया जाता है। ऐसा सभी ग्रह-गोल जिस पर रचनाएँ होते है वह सदा-सदा ही पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञानावस्था मानव से संपन्न होना पाया जाता है। इस धरती पर इसका साक्ष्य सम्पन्न हो चुका है। विचारने और निष्कर्ष पाने का बिन्दु है कि यह धरती भी एक रचना है और इस धरती में सम्पूर्ण रचनाएँ है। जैसे पहले चारों अवस्थाएँ कही गई है। इस धरती में जीता जागता चारों अवस्थाएँ विद्यमान है। इन चारों में ये अर्थ दृश्यमान होते हुए धरती विरचित होते हुए देखने को नहीं मिलता है और इन चारों अवस्थाओं के होते धरती अपने दृढ़ता को बनाए रखता हुआ मानव को देखने को मिला है। इससे यह पता चलता है और प्रमाणित होता है कि भौतिक-रासायनिक रचना-विरचनाएँ धरती के ऊपरी सतह पर होते हुए धरती अपने वैभव को बनाए रखने में क्षमता सम्पन्न है। दूसरे क्रम में यह धरती अपने आप में व्यवस्था होते हुए समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता हुआ दृष्टव्य है। जैसा यह धरती अपने चारों अवस्था सहित एक व्यवस्था के रूप में है ही इसी के साथ-साथ एक सौर व्यूह में भागीदारी निर्वाह करता है। यह भी हर जागृत मानव को स्पष्ट रूप में ज्ञात है। हर सौर व्यूह अनेक सौर व्यूहों के साथ व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने के क्रम में अनन्त सौर व्यूह,