व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

Back to Books
Page 57

को खो रहा है अथवा धरती संतुलन से असंतुलन की ओर परिवर्तन होने की सूचना संभावना मानव को विदित हो चुकी है। दूसरा इसका कारण में मानव अपने संतुलन को न पहचानना ही है। हर मुद्दे में मानव आवेश और आवेशकारी विधियों को अपनाया है। इसका साक्ष्य यही है भोगोन्मादी समाजशास्त्र, लाभोन्मादी अर्थशास्त्र और कामोन्मादी मनोविज्ञान है जिसको परंपरा में अति महत्वपूर्ण विधि से पढ़ाया जाता है। न पढ़ाते हुए भी आचरण व्यवहार मुद्रा भंगिमा में अपेक्षा आकांक्षा के स्थानों पर अधिकांश स्थानों में मानव में अधिकांश भाग इन्हीं आवेशजन्य वाली लक्षणों को प्रकाशित करता रहता है। इन नजरिया से पता चलता है मानव अपने चिराशित जागृति को पहचाना नहीं है। इन्हीं उन्मादत्रय में ऊँचाई को पाना सम्मान का और वैभव का आधार भी माना गया है। इस मुद्दे को यहाँ ध्यान दिलाया गया कि यह मान्यताएँ अर्थात् उन्मादत्रय संबंधी जितने भी विचार हैं, प्रवृत्तियाँ है यह सब जागृति के विपरीत हैं। जागृति का प्रमाण समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व का अविभाज्य वर्तमान है। यह अथ से इति तक ध्यान में आने व सर्वमानव में सार्थक होने का आशय समाहित है। इसके साथ यह भी आशय समाहित है कि हम संग्रह-सुविधावादी विधि का सटीक मूल्यांकन करें। सर्वशुभ रूपी कार्यक्रमों, विचारों, प्रवृत्तियों, निष्कर्षों को मानव के सम्मुख प्रस्तुत करना “व्यवहारवादी समाजशास्त्र का प्रधान उद्देश्य है।

उपभोक्तावादी संस्कृति सदा-सदा के लिये सामाजिक होना संभव नहीं है। उपायों से भोग विधियों को पहचान लेना ही उपभोक्तावाद है। उपभोक्तावादी विचार स्वयं संग्रह की ओर है और सुविधा उसका लक्ष्य बना रहता है। सम्पूर्ण सुविधाएँ इन्द्रिय सन्निकर्ष में व्याख्यायित है। इसे भोगवाद के लिये