व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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अनन्त ग्रह-गोल मानव सहज कल्पना में आता ही है। असंख्य रूप में अर्थात् मानव गिन नहीं सकता है इतना संख्या में ग्रह गोल असीम ऊर्जा में आकाश में दिखाई पड़ते हैं। इस प्रकार यह धरती अपने में चारों अवस्थाओं से समृद्ध होना स्पष्ट है और मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में इस धरती पर है। शरीर परंपरा स्थापित हो चुकी है। जीवन अस्तित्व में है ही।

गठनपूर्ण परमाणु जीवन पद में वैभवित होते हैं। जीवन पद में संक्रमण अस्तित्व सहज व्यवस्थानुसार सम्पन्न होता है। इस क्रियाकलाप में मानव की कोई योजना समाहित नहीं है। जीव प्रकृतियों और मानव शरीर रचना विधि पर्यन्त भी मानव का कोई हस्तक्षेप नहीं है। जब से मानव इस धरती पर प्रकट हुआ तब से ही जागृति की अपेक्षा रहते हुए जागृति की ओर निश्चित दिशा, गति, प्रक्रिया, प्रणाली, पद्धति सहज ज्ञान, विज्ञान, विवेकपूर्ण प्रवृत्तियाँ प्रमाणित न होने के फलस्वरूप शरीर को जीवन समझते हुए अथवा शरीर को निरर्थक समझते हुए, जितने भी प्रयास हुआ उन सभी प्रयासों के फलन में जागृति प्रमाणित नहीं हो पाया। इस विधि से जीवन और शरीर अस्तित्व सहज रूप में अवस्थित होते हुए जिस अर्थ के लिये मानव का इस धरती पर अवतरण हुआ है भ्रमवश उसके विपरीत कुछ भी किये गये, उससे मानव में हुई पीड़ा तथा पीड़ा से मुक्ति हेतु चिराशित जागृति की दिशा और कार्यक्रम को पाना एक अनिवार्य स्थिति निर्मित हुई। इसको ऐसा भी सोचा जा सकता है जितने भी प्रकार से मानव इस धरती पर जीने का प्रयास किया उन सबसे जहाँ पहुँचे उस स्थिति पर पुनःविचार करने के लिये बाध्यता निर्मित किया है। यही विगत के सम्पूर्ण प्रयोगों का फलन है। इसमें चिन्हित स्वरूप यही है कि धरती अपने संतुलन