व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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जीवन प्रत्येक मानव में मूल रूप है। जीवन शक्तियाँ और बल अविभाज्य रूप में क्रियाशील रहते ही हैं। इसी कारणवश जीवन के आँशिक क्रियाविधि से सम्पूर्ण क्रियाओं का व्याख्या होना संभव ही नहीं है। अनुभव के अनन्तर सम्पूर्ण क्रियाएं सहज रूप में वर्तमान रहता ही है तथा सभी क्रियाएं अनुभव के अनुरूप होना देखा गया है। अनुभव सहअस्तित्व में ही होता है। प्रत्येक मानव अपने अस्तित्व को स्वीकारता ही है जबकि शरीर समयाविधि के अनुसार विरचित हो जाता है। इसे परंपरा के रूप में देखा गया है। इसलिये ऐसी शरीर रचना-विरचना को जन्म और मृत्यु कहा जाता है। जबकि जीवन ज्ञान के अनन्तर जीवन का अमरत्व, स्वाभाविक रूप में जीवन को समझ में आता है।

अस्तित्व में जीवन ही अमर पद में और सहअस्तित्व नित्य पद में होना पाया जाता है। अस्तित्व ही व्यापक, अनन्त, अमर, रचना-विरचना के रूप में वर्तमान है। रचना विरचनाएँ परिणामों के रूप में विद्यमान है ही। रचना की अवधि में जो द्रव्य वस्तुएँ दिखाई पड़ती है, विरचना के अनन्तर भी उतने ही वस्तु अस्तित्व में होते ही है। जैसे इस पत्थर को कूट-कूटकर अनन्त टुकड़े में बाँटने के उपरान्त भी मूलतः पत्थर के रूप में जितने भी द्रव्य वस्तुएँ है, वे सब पत्थर के रूप में पाया जाता है। इसी प्रकार एक झाड़ अपने रचना रूप में जितने द्रव्य वस्तुओं से वैभवित रहता है उसे अनेक रूप में बांटने के उपरान्त भी यथा उसको कूट-पीसकर, सुखाकर, जला करके और कुछ भी करके देखने के उपरान्त भी तरल, विरल, ठोस के रूप में अथवा विरल और ठोस के रूप में सभी पदार्थ यथावत् विद्यमान रहते हैं। तीसरे विधि से एक जीव, एक मानव शरीर रचना में कितने भी द्रव्य और वस्तुएँ समाहित, संयोजित और वैभवित रहते हैं, उसे जलाने, गलाने,