व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
दूसरे के साथ व्यवस्था सहज वैभव में भागीदारी रूप में ही होते हैं। इससे प्रभाव क्षेत्र का तात्पर्य व्यवस्था और भागीदारी का अर्थ और ध्वनि, मानव में आवश्यकता का होना समझ में आता है। इसी प्रकार एक से अधिक परमाणु, अणु, अणु रचित पिण्ड और परमाणु ही स्वयं गठनपूर्णता सहित जीवन पद में संक्रमित होने, अमरत्व अर्थात् परिणाम विहिन स्थिति गति सहित सम्पन्न होने का साक्ष्य, आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, प्रमाण के रूप में दृष्टव्य है। आशा और आंशिक विचारों के रूप में जीवों में दृष्टव्य है। पक्षी अपने घोसले में, जानवर अपने-अपने स्थान पर लौट जाते है यह आंशिक विचार होने को प्रमाणित करते हैं। वनस्पतियों में जीवन होता नहीं है अर्थात् झाड़-पौधे को जीवन संचालित करता नहीं है।
मानव में जीवन का अध्ययन मानव से ही हो पाता है। जीवन सहज वैभव और साक्ष्य आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, प्रामाणिकता के रूप में मानव परंपरा में देखने को मिलता है। जीवन क्रियाएं स्वाभाविक रूप में अपने अर्थों को सर्वमानव में प्रकाशित करते ही रहते हैं और स्वीकृत रहते हैं। मानव आशा, विचार, इच्छाओं को कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा व्यक्त करते हुए शरीर को जीवन मानता हुआ देखा जाता है। उक्त विधि से आशा, विचार, इच्छाओं को कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों की सीमा में परिसीमित करना जब संभव नहीं हो पाता है तभी से आशा, विचार, इच्छाओं का मूल रूप जानने, मानने, पहचानने की इच्छाएं स्वयंस्फूर्त होना पाया जाता है। इसी के साथ-साथ आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और प्रामाणिकता और आस्वादन, तुलन, चिंतन बोध और अनुभव जीवन सहज क्रियायें होने के कारणवश जीवन समुच्चय आशा, विचार, इच्छा के परिसीमा में व्याख्यायित नहीं हो पाती है। यही मुख्य कारण है।