व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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वाला इकाई है। इसी क्रम में शब्द वांङ्गमय होना सबको विदित है। मानव ही अस्तित्व सहज प्रमाणों को समझता है, समझाता है। समझाने के क्रम में वांङ्गमय एक उपाय अथवा सशक्त उपाय है। इसी क्रम में सम्पूर्ण अस्तित्व सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति के रूप में वांङ्गमय के द्वारा इंगित होता है। ऐसा अस्तित्व ही जड़-चैतन्य के रूप में नित्य कार्यरत रहना पाया जाता है। ऐसी क्रियाशीलता के ही फल में जीवन पद गठनपूर्णता पूर्वक गठित है ही। इसमें भी परंपरा की बात आती है। गठनपूर्णता गठित होने के उपरान्त चैतन्य पद में संक्रमण जीवन पद प्रतिष्ठा, जीवनी क्रम, सम्पूर्ण समृद्ध मेधस युक्त जीव शरीरों में जीवन प्रमाणित किया। यह वंशानुषंगीयता के रूप में समीक्षीत है। मानव शरीर पंरपरा के उपरान्त कल्पनाशीलता सहज विधि से प्रकाशित होना देखा गया है। इसी क्रम में इसे जागृति क्रम नाम दिया गया है। जागृति क्रम में हम मानव सुदूर विगत से अभी इस दशक तक क्या-क्या कर पाये। यह पहले स्पष्ट हो चुकी है। सहअस्तित्व की रौशनी में अभी तक किये गये सभी कृत्य मानव सहज इच्छापूर्ति अर्थात् शरीर संवेदनाओं के अर्थ में ही चरितार्थ होना समीक्षीत होता है। मानव में ही पाये जाने वाली शेष इच्छाएं जो अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था स्वरूप है को चरितार्थ होना शेष है वह भी चित्रण सहज तालिका में प्रस्तुत हो चुकी है। सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज को चरितार्थ रूप देने के लिये शेष इच्छाएँ मानव में, से, के लिये प्रतीक्षित है जिन्हें चरितार्थ होना अनिवार्य है।

इसी तारतम्य में ज्ञान, विवेक, विज्ञान सहज आधारों पर ही अभी तक जो कुछ भी किये, आगे भी जो कुछ भी चरितार्थ रूप देना है इसके मूल में भी ज्ञान, विवेक, विज्ञान स्वाभाविक