व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
अध्याय - 3
जीवन ज्ञान की ओर संकेत
हर मानव शब्दों, वाक्यों, सूत्रों से निर्देशित अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के रूप में समझना ही ज्ञान, अध्ययन पूर्वक समझा हुआ को अनुभवपूर्वक विधि से प्रमाणित करना ईमानदारी है।
सम्पूर्ण व्यवस्था सहअस्तित्व ही है। सहअस्तित्व अपने स्वरूप में सत्ता में संपृक्त प्रकृति है। इसी प्रमाण के आधार पर अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व होना स्वाभाविक है। सत्ता में संपृक्त प्रकृति नित्य वर्तमान है। सत्ता सर्वत्र विद्यमान, व्यापक और असीम है। सत्तामयता ही ऊर्जा स्वरूप में पारगामी है। ऊर्जा सम्पन्नता का प्रमाण प्रकृति में है। प्रकृति का प्रमाण साम्य ऊर्जा में नित्य वर्तमान में अथवा सम्पृक्तता में होना पाया जाता है। यथा आप हम दो वस्तु, दो जीव, दो पदार्थ, दो अणु, दो परमाणु, दो परमाणु अँश के परस्परता में अलग-अलग दिखता हुआ आँखों में भी दिखती है, समझ में आती है। अलग-अलग जो वस्तु दिखता है, समझ में आता है उसके सभी ओर दूसरे वस्तु के बीच में उभय वस्तु के सभी ओर है, सत्ता है। यह पारगामी है इसका प्रमाण हर वस्तु, हर मानव, हर ग्रह-गोल ब्रह्माण्ड, सौरव्यूह ऊर्जा सम्पन्न रहने के आधार पर प्रमाणित होता है। ऊर्जा सम्पन्नता का प्रमाण श्रम, गति, परिणाम से, श्रम, गति, परिणाम का प्रमाण परमाणु में ही गठनपूर्णता फलतः जीवन प्रतिष्ठा, जीवन जागृति अर्थात् क्रियापूर्णता और आचरण पूर्णता के रूप में होना प्रमाणित होना पाया जाता है। मानव ही अस्तित्व में सम्पूर्ण क्रियाकलापों का नामकरण करने