व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
रूप में समाहित रहेगा ही। पूर्वावर्ती ज्ञान, विवेक, विज्ञान का आधार दो विधा से गुजरकर देख चुका है।
- रहस्यमूलक ईश्वर केन्द्रित ज्ञान ईश्वरेच्छा, देवेच्छा के आधार पर सृष्टि स्थिति लय पर आस्था। मानव स्वतंत्र नहीं है। यही विवेक-ज्ञान-विज्ञान का आधार रहा है।
- दूसरे विधि से भी हम गुजर चुके हैं वह यह रही कि अस्थिरता मूलक वस्तु केन्द्रित ज्ञान यांत्रिकता, सापेक्षता विधि और यंत्र प्रमाणों के आधार पर जो कुछ भी किये जिसका परिणाम हमें प्राप्त हो चुका है।
न्याय शब्द का प्रयोग, उसी के साथ-साथ अन्याय शब्द का प्रयोग होता आया है। सार्वभौम रूप में न्यायापेक्षा सर्वमानव में रहे आया। न्याय का ध्रुवीकरण अर्थात् निश्चयन और उसकी व्यवहारीकरण अभी भी मानव कुल में प्रतीक्षित है। न्याय को सर्वथा आचरण रूप में सदा-सदा के लिये इस प्रकार पहचानना संभव हो गया है कि अस्तित्व में सदा से ही संबंध समीचीन रही है। ऐसा संबंध दो प्रकार से होना देखा गया है।
- मानव-मानव संबंध - परिवार-समाज-व्यवस्था के रूप में न्याय, धर्म, सत्य सहज प्रमाण।
- मानव-प्रकृति संबंध - नियम, नियंत्रण, संतुलन रूप में।
मानव भी चैतन्य प्रकृति सूत्र से सूत्रित है ही इस प्रकार मानव और मानवेत्तर प्रकृति के रूप में मानव ही देख पाता है। मानवेत्तर प्रकृति में जीवावस्था, प्राणावस्था और पदार्थावस्था की सम्पूर्ण वस्तुएँ, गण्य है। इसी में धरती, जलवायु व वन खनिज समायी है। इस सबके साथ संबंध सदा-सदा से बनी हुई है। इसे हमें जानने, मानने, पहचानने