व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
और निर्वाह करने की संभावना है ही, आवश्यकता भी है। इसी क्रम में मानव संबंध भी स्थापित रहता ही है। इन सभी संबंधों का सार्थक, आवश्यक, अतिवांछनीय जैसा विचार स्वीकृति और आशा के रूप में भी स्वीकृतियाँ मनुष्य में रहता ही है। ऐसा संबंध और संबंधों का प्रयोजन निम्न प्रकार से पहचाना जाता है।
प्राकृतिक संबंधों का प्रयोजन
धरती का संतुलन, जल का संतुलन, वायु का संतुलन, वन-खनिज का संतुलन, इनके संतुलन के फलस्वरूप ऋतु संतुलित रहना पाया जाता है। धरती के संतुलित होने के उपरान्त ही अन्य सभी संतुलन साकार होना स्वाभाविक रहा है। उसके उपरान्त मानव प्रकृति का धरती पर अवतरित होना स्वाभाविक रहा है। मानव ने अभी तक इन चारों विधाओं में असंतुलन न्यूनातिरेक रूप में पैदा कर चुका है। इसका मूल कारण अनानुपाती वन खनिज का शोषण। जलवायु का प्रदूषण, धरती में ताप व प्रदूषण प्रधान रहा है। यह सर्वविदित हो चुकी है ऐसे प्रदूषणों के आधार पर मानव का इस धरती पर जीना दूभर होता जा रहा है। इससे छूटना अति आवश्यक मुद्दा है। इसीलिये कि धरती ही असंतुलित होने के उपरान्त मानव का इस धरती पर रहने का प्रश्न ही नहीं रहता। इसी कारणवश सर्वमानव को अपेक्षा सहज जागृति सम्पन्न होना आवश्यक है। ऐसी जागृति के लिए तीन महत्वपूर्ण अध्ययन कार्य सम्मुख है। 1. जीवन ज्ञान, 2. सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, 3. इन दोनों मुद्दे में पारंगत होने का फल-परिणाम मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान देखा गया है। तीनों मुद्दे पर पारंगत होने के लिये सर्वमानव में जीवन सहज रूप में अर्हता है ही। अस्तु सर्वमानव जीवन ज्ञान रूपी