व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
आचरण ज्ञान से समृद्ध मानव ही प्रामाणिकता, समाधान और न्यायपूर्ण विचार व्यवहार व कार्यप्रणालियों को प्रमाणित करता है। प्रत्येक मानव में, से, के लिये अनुभव, व्यवहार और प्रयोग ही प्रमाण है। अनुभव मूलक विधि से किया गया व्यवहार व प्रयोग तर्क सम्मत होना व प्रयोजनकारी होना पाया जाता है। यही ज्ञानावस्था का वैभव है ऐसा वैभव ही स्वराज्य व स्वतंत्रता के रूप में प्रमाणित होता है।
मानव परंपरा में ही प्रमाणों की अपेक्षा बनी हुई है। प्रमाणों के संबंध में मानव सुदूर विगत से अपेक्षा, आकांक्षा को व्यक्त करता हुआ ही आया है। ऐसे प्रमाणों का नामकरण विगत में सर्वप्रथम शब्द प्रमाण के रूप में; दूसरा आप्त पुरूषों के वचन को प्रमाण और प्रत्यक्ष अनुमान आगम को प्रमाण माना गया है। अभी इस व्यवहारवादी समाजशास्त्र जो अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन का फलन है, जिसे भली प्रकार से अनुभव किया गया है, इसमें मानव मानस चिराशित प्रमाण को अनुभव, व्यवहार और प्रयोगों में प्रमाणित होने के साक्ष्य को उद्घाटित किया है।
जनमानस अभी तक शब्द ही सम्पूर्ण प्रमाण होना अर्थात् कायिक, वाचिक, मानसिक; कृत, कारित, अनुमोदित; जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और सर्वदेश काल, दिशा, परिप्रेक्ष्य, कोण, आयामों में प्रमाणित करना संभव नहीं हुआ। इसी प्रकार आप्त वाक्य भी सर्वदेश काल में आप्त वाक्य के रूप में फलित होकर प्रमाणित होना किसी भी परंपरा में संभव नहीं हुआ। इसी के साथ-साथ प्रत्यक्ष प्रमाण आगम प्रत्यक्ष के विरोधी संख्यों और अनुमान से संभावित घटना व तथ्य की परिकल्पनाएँ, अनुमान व प्रत्यक्ष के विपरीत अनेक संख्या व विधि में प्रस्तुत हुआ है जैसे एक मानव। मानव क्या है? इस