व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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प्रश्न का उत्तर पाने के लिये प्रयत्न किया। इसके लिए प्रथम व प्रत्यक्ष विधि अपनाया। प्रत्यक्ष रूप में एक मानव से दूसरा मानव का रूप व कार्य भिन्न होता हुआ देखा गया। फलस्वरूप प्रत्यक्ष सत्य नहीं है ऐसा सोचा गया। फिर इसी प्रकार एक गाय, वृक्ष, पत्थर, मिट्टी, मणि, धातुओं को देखा सभी में विविधतायें दिखीं। परिवार में दस व्यक्तियों के बीच में विविधता दिखी। आकाश में असंख्य तारागण अनेक ग्रह-गोल और सौर-व्यूह जितने भी दिखते हैं इन सबमें छोटा बड़ा, कम प्रकाश, अधिक प्रकाश रूपी विविधताएँ देखने को मिली। ऐसे ही कारणों से प्रत्यक्ष को असत्य मान लिया।

इस अनुमान को मानव ने बहुत सारे कल्पना कहा और जीव नाम को कोई चीज होने का परिकल्पना दी। जीवों के रूप में जितनी भी प्रवृत्तियों का अध्ययन किया उसमें भी विविधताएं दिखाई पड़ी। प्रवृत्तियों को विशेषकर चार विषय और तीन ईषणाओं के आधार पर आंकलन किया। इसमें प्रवृत्तियों की विविधता जीव सत्य कहने में ही शंकायें अथवा विरोध कर दिया। जबकि जानना, मानना, पहचानना व निर्वाह करना बहुत दूर रह गया। तीसरा इन अनन्त रूप में दिखने वाली विविध रूपी संसार का मूल रूप में जो वस्तु है वही आगम रूप है, उसी में सब विलय हो जाता है। विलय होना ही निगमन है। वही सत्य है इस प्रकार आगम निगम का मूल रूप ही आगम प्रमाण है। इस प्रकार से मानते हुये इन वचनों के प्रति पूर्ण निष्ठा दृढ़ता सहित बहुत सारे मेधावियों ने अपने को अर्पित किया। बहुत कुछ साधना अभ्यास करने के उपरान्त भी परंपरा के रूप में सिद्ध नहीं हुआ। आगम प्रमाण सर्वाधिक रहस्यमय हो गया और अनुमान व प्रत्यक्ष वादग्रस्त हो गया। इस प्रकार मानव प्रमाण सहित जीना