व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

Back to Books
Page 33

प्रमाणित कर देख लिये हैं। यह भी इसके साथ हमें पता लग चुका है और लोग भी पता लगा सकते हैं कि समुदाय विधि से कोई सार्वभौम सूत्र नहीं पाये हैं और न ही पा सकते हैं। इसी आधार पर मानवत्व को पहचानने, निर्वाह करने के क्रम में अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिंतन अध्ययन एक आवश्यकता रही है। यह बलवती होने के आधार पर ही इसमें हम पारंगत होने का प्रमाण सहज ही प्रमाणित हुई।

अखण्ड समाज की आवश्यकता, कल्पना केवल मानव प्रकृति अथवा मानव सहज अस्तित्व के साथ ही सूत्रित हुआ है अर्थात् और किन्हीं जीवों का समाज अथवा वनस्पतियों का समाज, मृद् पाषाण, मणि, धातुओं का समाज रूप प्रमाणित नहीं होती। हर प्रजाति के जीव, हर प्रजाति की वनस्पति, हर प्रजाति के मृद्, पाषाण, मणि, धातुएँ अपने अपने त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित हैं। अतएव समाज का केन्द्र बिन्दु अखण्ड समाज रूप में प्रमाणित होने के लिए केवल मानव ही है।

मानव विविध परंपराओं को झेलते हुए अर्थात् राज्य, धर्म, अर्थ परंपराओं को झेलते हुए आज इस दशक में जिस स्थिति में है उसका चित्रण इस प्रकार है :-

  • भय, प्रलोभन, आस्था,
  • सुविधा, संग्रह, भोग,
  • प्रिय, हित, लाभात्मक दृष्टियों की क्रियाशीलता और
  • आशा, विचार, इच्छाओं का अथक प्रयोग हो चुका है।

इच्छाएँ जो मानव में उद्गमित हैं जिनका विचार समर्थन मिल पाया है और आशा के रूप में स्वीकृत हो पाया है और व्यवहार में प्रमाणित नहीं हो पायी उनका चित्रण एवं प्रस्ताव इस प्रकार है :-