व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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लेते हैं और पुनः 2-2 बना लेते हैं। इस विधि से बहुकोषीय रचना विधि स्थापित है।

इस क्रम में एक प्रजाति की प्राणावस्था की रचना अपनी पराकाष्ठा तक सम्पन्न होने के उपरान्त, दूसरे प्रजाति की रचना के लिए उन्हीं प्राणसूत्रों में लहरे उठती हैं जिसे रासायनिक उर्मि कहा जाता है। जो परंपरा के रूप में स्थापित हो चुकी है वह बीज वृक्ष विधि से आवर्तनशील और समृद्ध होता ही रहता है और अनुसंधान क्रम में परंपरा से भिन्न एक रचना विधि प्राणसूत्र में उत्सव पूर्वक स्थापित हो जाती है। यह परंपरा विधि सम्पन्नता + रासायनिक उर्मि अथवा तरंग का संयोग से भिन्न रचना विधि सम्पन्न होना पाया जाता है। इसी क्रम में अनेक प्रजाति की रचना और उसका बीज, फलस्वरूप परंपरा आवर्तनशीलता के रूप में स्थापित होना पाया जाता है। ये सब इसी धरती पर प्रमाणित है।

प्राणावस्था के उपरान्त ही प्राणावस्था के अवशेषों, धरती के संयोग और उष्मा, वायु, जल संयोग से बहुत सारे स्वदेज-कीटों, जन्तुओं का प्रकट होना आज भी देखने को मिलता है। इस क्रम में अण्डज प्रकृति रचना विरचना का होना देखा जाता है। यही क्रम से प्राणावस्था के अवशेषों सहित पुनर्प्रक्रिया क्रम में स्वदेज प्रकृति और प्रक्रियाएं विपुलीकृत होना आज भी देखना संभव है। इनमें से कुछ अण्डज विधि से अपनी परंपरा बनाना देखा जाता है। अण्डज परंपरायें शनैः-शनैः प्रयोग विधि से उदात्तीकरण नियमों के अनुसार समृद्ध होते जलचर, भूचर, नभचर के रूप में देखने को मिलता है। इनमें पराकाष्ठा की समृद्धि, अग्रिम अवस्था की समीचीनता, अनुकूल परिस्थितियों के आधार पर अण्डज