व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
श्रम, गति, परिणाम रूपी क्रिया को स्पष्ट करना देखा गया है। इस प्रकार परमाणु मूल मात्रा, अनेक परमाणुओं से एक अणु, अणु अपने में एक निश्चित मात्रा, एक से अधिक प्रजाति के अणु निश्चित अनुपात (मात्रा) सहित संयोग, वातावरणिक, नैसर्गिक सहअस्तित्व सुलभता, उष्मा का अनुपात के फलस्वरूप में अणुओं का अपने-अपने आचरण सर्वथा त्यागकर तीसरे आचरण के लिये सर्वथा तत्परता ही रासायनिक उर्मि के रूप में देखने को मिलता है। ऐसे अनेक रसायन द्रव्य भौतिक रूप में किसी भी धरती में संभावित होना सहज है। ऐसे धरती में से एक धरती यह भी है। ऐसे अनेक प्रकार के रसायन द्रव्यों से समृद्ध होने के उपरान्त रासायनिक द्रव्यों का मिश्रण होना पाया जाता है। जैसे अम्ल और क्षार का मिश्रण। इसी प्रकार रसायन द्रव्य ठोस, तरल, वायु के रूप में वैभवित होना देखा गया है। ऐसा ठोस स्वरूप ही प्राणकोषाओं के रूप में भी (प्राणकोषा रूपी रचना के रूप में भी) होना पाया जाता है। ऐसी प्राणकोषाओं में प्राण सूत्र स्थापित होना देखा गया है। ऐसे प्राण सूत्र सहित प्राणकोषा रसायन द्रव्य में आप्लावित रहते हुए निश्चित उष्मा एवं दबाव सहित स्पंदनशील होना स्वाभाविक है। यही प्राणकोषा का सार्थक रूप है। ऐसे प्राण कोषा में निहित प्रत्येक प्राणसूत्र जब तक अपने जैसे ही एक-एक प्राण सूत्र को बनाते हैं अर्थात् दोनों मिलकर पुनः दो प्राणसूत्र को निर्मित कर लेते हैं तब तक यह एक कोशीय रचना के रूप में पहचाना जाता है। जब यही प्राणसूत्र अपने ही जैसे दो-दो के दो जोड़े बना लेते हैं तब द्विकोषीय रचना कहलाते हैं। प्राणसूत्र का रचना सम्पन्न होते ही उसके लिये आवश्यकीय कोषा समीचीन रहता ही है। यही रासायनिक उर्मि का मर्म और वैभव है। इसके आगे एक-एक प्राणसूत्र अपने जैसे दूसरे सूत्र को बना