व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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प्रस्तुत संतानों में विविधतायें होना पाया गया। यथा मूर्ख माता-पिता के संतान विद्वान और विद्वान माता-पिता के संतान मूर्ख भी होता हुआ उन्हीं उन्हीं के रूप में होता हुआ और उनसे भिन्न रूप में होता हुआ भी देखा गया है। इन जीते-जागते प्रमाणों से वंशानुषंगीय का स्थिरता, विश्वसनीयता आवश्यकता और उसकी सार्थकता अध्ययन गम्य नहीं हो पाया। इन इच्छाओं के प्रति विश्वास भी किया एवं अथक प्रयास किया। ऐसे अपेक्षित संतुलन बिन्दु को पाया नहीं है। इसकी गवाही यही है। ‘मात्रा का स्थिर बिन्दु’ मानव आज तक पाया नहीं। इसका कारण परमाणु अंश में मूल मात्रा (स्थिर मात्रा) को खोजने गये जबकि अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में अथवा सहअस्तित्व रूपी प्रमाण रूप में किसी न किसी परमाणु में और उस परमाणु सहज व्यवस्था में भागीदारी के रूप में कार्यरत रहता हुआ प्रत्येक अंश देखा गया है। इसलिये मूल मात्रा का स्वरूप परमाणु है न कि परमाणु अंश।

जैविकता का मूल रूप प्राणकोशा होना हम पहचान चुके हैं, परंपरा इसको स्वीकार भी चुका है। इसके मूल रूप में प्राणकोषा, जो स्पंदनशील कार्यकलाप सहित देखने को मिलता है, वह किस विधि से स्पंदन क्रिया में परिवर्तित हो जाता है? इस प्रश्न का उत्तर पाना भी मानव सहज अपेक्षा रही है। जबकि प्राणकोषाओं को खोल देने (तोड़ देने) पर अणु और उसके मूल में परमाणु ही होना पाया गया है। सहअस्तित्व सहज रूप में प्रत्येक परमाणु एक से अधिक अंशों के साथ गतिपथ सहित निश्चित आचरण सम्पन्न रहना पाया जाता है। इसी गवाही से सहअस्तित्व में ही मात्रा, सहअस्तित्व में ही व्यवस्था (निश्चित आचरण) और निश्चित रचना स्पष्ट हो जाती है। इन तीनों विधाओं को स्पष्ट करने के क्रम में ही