व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
इन अध्ययनों में पूर्णता, परिपक्वता और समग्रता के साथ अन्तर संबंध और बाह्य संबंध प्रयोजन और निष्कर्षों को पाने के लिए प्रयास चल ही रहा है। ऐसे प्रयास विविध देश काल में सम्पन्न होता हुआ आया है। यह मानव परंपरा में विदित तथ्य है।
शरीर रचना संबंधी तथ्यों के साथ-साथ जितने भी मानव अपने में जीव प्रकृति अथवा जीव चेतना के साथ निर्णय लिये गये वह सब अधूरा अथवा संदिग्ध अथवा निराधार अवैधता को वैध मानने वाला होना देखा गया। जैसा रचना के अनुरूप चेतना कार्य करने के आधार पर अर्थात् शरीर वंशानुषंगीय विधि से कार्य करने की विधि पर विश्वास किये अथवा मान लिए। हर दिन, हर क्षण, हर पल मानव का निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण विधियों के चलते इसके निराधारता स्पष्ट होता आया। जैसा रचना क्रम में मेधस तंत्र एक अद्भुत बहुप्रक्रिया, बहु नस जाल तंत्र, पावन और सुरक्षा विधि से निर्मित-रचित रहते हुये उसमें स्मृति क्षेत्र को पता लगाते निराधारता की स्थली में हम होना पाते हैं। जबकि हर देशकाल में विभिन्न वातावरण नैसर्गिकता और संयोग विधियों के अनुपात प्रक्रियाओं के अनुरूप और मानव के आहार-विहार सहित संयोगों के फलन में अथवा फलस्वरूप ये रोग निरोगता को पहचानना संभव हुआ है और यह सदा सदा के लिये मानव परंपरा में से प्रमाणित होता ही रहेगा। इस प्रकार मानव शरीर का अध्ययन और जीव शरीर का अध्ययन से वंश का स्वरूप स्पष्ट होता है। यह डिम्ब और शुक्र सूत्र का संयोग, उसकी पुष्टि और पुष्टि के लिए प्राप्त द्रव्यों की पवित्रता, शुद्धता और संयोग विधियों के आधार पर विविध प्रकार से प्रभाव पड़ते हुये देखने को मिलता है। इन्हीं आधारों पर एक ही माता-पिता से संभावित, प्रमाणित,