व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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संसार से पिण्डज संसार प्रकट होने की बात इस धरती पर घटित हो चुकी है। यह भी अपने-अपने परंपरा के रूप में वंशानुषंगीय विधि से आज भी स्पष्ट है।

इन्हीं अण्डज-पिण्डज संसार रचना क्रम में शरीर रचना के लिये आवश्यकीय सभी रासायनिक द्रव्य और भौतिक वस्तुएं सहज सुलभ होने के क्रम में, मेधस रचना क्रम शरीर रचना क्रम के साथ आरम्भ होकर समृद्ध होना विकास क्रम में स्वाभाविक कार्य प्रणाली रही है। यह अण्डज-पिण्डज दोनों प्रकार के जीवावस्था का वैभव वंशानुषंगीयता को प्रमाणित अथवा व्यक्त करता हुआ देखने को मिलता है। इसी क्रम में पिण्डज प्रकटन के रूप में मानव शरीर रचना पंरपरा भी सुस्पष्ट है। मानव भी अपनी परंपरा के रूप में स्थापित हो चुका है। इन सभी घटनाक्रम के मूल में प्रत्येक परंपरा स्थापित होने की प्रक्रिया है। परंपरा स्थापित होने के उपरान्त वह मूल क्रिया जैसे अण्डज से पिण्डज प्रकटन क्रिया का दोहराना अपने आप शिथिल हो जाता है। परंपरा उन्नत हो जाती है। उन्नत होने का तात्पर्य परंपरा में निखार और उसका नियतिक्रम, आचरण स्पष्ट होने से है। मानव पंरपरा अनेक समुदायों के रूप जैसे (अण्डज से पिण्डज प्रकटन क्रिया) में अपने को परंपरा सहज प्रकटन प्रमाणित हो चुकी है।

अस्तित्व में प्रत्येक एक त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में वैभव और प्रमाण है। प्रमाण का तात्पर्य वर्तमान में हर व्यक्ति इसे समझ सकता है। फलस्वरूप अपना प्रभाव स्वरूप मानव भी स्वयं व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी की कल्पना, अध्ययन, निश्चय एवं प्रमाणित होने का कार्य कर सकता है। इसे हम