व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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अध्याय - 10

मूल्यांकन

समाजशास्त्र में प्रधानतः मूल्यांकन समाज और व्यवस्था का ही होना पाया जाता है। समाज गति मूलतः नियम और न्याय के समान में होना देखा गया है। इसका संतुलन रूप व्यवस्था के रूप में अपने-आप प्रमाणित होना देखा गया है। क्योंकि नियम और न्याय के तृप्ति बिन्दु में ही समाधान का होना पाया जाता है। नियम और न्यायपूर्वक ही कर्तव्य और दायित्व होता है। यह व्यवस्था कार्य में और व्यवहार कार्य में वर्तमान होना आवश्यक देखा गया है।

व्यवहार कार्यों को मूल्य, चरित्र और नैतिकता का पूरक विधि से सम्पन्न होना देखा गया है। यही मानवीयतापूर्ण आचरण का वैभव है और प्रमाण है। व्यवहार में न्यायपूर्वक नियमों का, व्यवस्था में नियमपूर्वक न्याय का अनुबंधित रहना दिखाई पड़ता है। इसे हर मानव अनुभव करता ही है या करेगा ही। जैसे :- हर संबंधों में मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति यह न्याय का स्वरूप है। इसके समर्थन में अथवा इसके पूरकता में नियम के रूप में तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा प्रमाणित होता है। इनके पूरकता में स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार सम्पन्न होना देखा गया है। मूल्यांकन का यह आधार बिन्दु है। दूसरा आधार बिन्दु मानव अपने परिभाषा के अनुरूप ‘त्व’ सहित व्यवस्था में जीने की कला को प्रमाणित करता है। यही समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व के रूप में तृप्ति का स्रोत और