व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
संस्कारों के संबंध में जाति, धर्म, कर्म, दीक्षा, विधा भी स्वनिरीक्षण पूर्वक ही विद्यार्थी अपने में, से मूल्यांकित करने की व्यवस्था बना रहेगा। जब सभी विद्यार्थी अपना-अपना मूल्यांकन लेखिक-अलेखिक विधियों से प्रस्तुत करते हैं। यह परस्पर अवगाहन करने का एक संगीतमय स्थिति बन ही जाती है। इससे परस्पर प्रेरकता और पूरकता दोनों संभव हो जाता है फलस्वरूप धारकता-वाहकता में सुगमता निर्मित होना पाया जाता है। शिक्षा का सम्पूर्ण सार्थकता स्वायत्त मानव के रूप में प्रमाणित होना ही है। परिवार मानव के रूप में संकल्पित होना और प्रमाणित होना ही है। हर शिक्षा, शिक्षण शाला-मंदिर संस्थाएँ अपने आप में एक परिवार होना स्वाभाविक है। परिवार के अंगभूत रूप में ही शिक्षा कार्य सम्पादित होना ही स्वाभाविक है। इसीलिये हर शिक्षण संस्था में परिवार मानव रूप में प्रमाणित होना सभी विद्यार्थियों के लिये सहज है। इस प्रकार स्वायत्त मानव और परिवार मानव का प्रमाण और उसका मूल्यांकन स्वाभाविक रूप में जीवंत होना पाया जाता है।
मानव का सम्पूर्ण वर्चस्व स्वायत्त मानव और परिवार मानव के रूप में मूल्यांकित हो जाता है। जो मानवीयतापूर्ण आचरण का ही प्रमाण है। दूसरा समझे हुए को समझाने की विधि में अर्थात् जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन को विवेक, विज्ञान, व्यवहार सूत्रों सहित समझाने की विधि से, समझा हुआ प्रमाणित होता है। इस प्रकार हर विद्यार्थी अपने में समझा हुआ को समझाकर प्रमाणित होने की व्यवस्था मानवीय शिक्षा-संस्कारों में सर्वसुलभ होता है। एक विद्यार्थी दूसरे को समझाने के उपरान्त समझाया हुआ को स्वयं ही मूल्यांकित करेगा। फलस्वरूप सभी विद्यार्थियों में पारंगत