व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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गति अनुस्यूत रूप में बना ही रहता है। यही व्यवस्था का वैभव होना पाया जाता है।

नियम त्रय विधि से समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को, परिवार मानव, समाज मानव और व्यवस्था मानव के रूप में सार्थक बनाता है। यह मानव परंपरा का वांछित फल है। इसे पाने के लिये ही, सर्वसुलभ होने के लिए स्वराज्य व्यवस्था पाँचों आयाम सम्पन्न विधि से दस स्तरीय स्वरूप में अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का स्पष्ट होना स्वाभाविक है। इसकी आवश्यकता हर मानव में देखने को मिलता है। इसे सफल और अक्षुण्ण बनाने की विधि से ही मूल्यांकन कार्य सम्पन्न होना स्वाभाविक है।

शिक्षा-संस्कार का मूल्यांकन :- शिक्षा-संस्कार क्रम में स्वायत्त मानव लक्ष्य के अर्थ में, जो जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान मूलक विवेक और विज्ञान विधि सहित मानवीयता पूर्ण आचरण के अर्थ में शिक्षा कार्य सम्पन्न हुआ रहता है उससे विद्यार्थी अपना मूल्यांकन करेंगे। हर कक्षा में विद्यार्थी अपना मूल्यांकन स्वयं करने की परंपरा होगी। इस मूल्यांकन विधि में हर विद्यार्थी स्व निरीक्षण पूर्वक ही मूल्यांकन करना हो पाता है। इसमें किताबों की संख्या गणना गौण हो जाता है। वस्तु के रूप में कहाँ तक जानना, मानना, पहचानना परिपूर्ण हो चुका है, इसके पहले परिपूर्णता की ओर जितने भी सीढ़ियाँ कक्षावार विधि से बनी रहती है उसके अनुसार किस सीढ़ी तक जानना, मानना, पहचानना संभव हो चुका रहता है, निर्वाह करने में जिन-जिन विधाओं में, संबंधों में पारंगत हुए रहते हैं इसका सत्यापन करना ही मूल्यांकन प्रणाली रहेगी।