व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
वस्तु का आदान-प्रदान करना मौलिक अधिकार पाया जता है। विनिमय कार्य में प्रधान सूत्र श्रम मूल्य का मूल्यांकन करना ही है। विनिमय सुलभता का अर्थ में सभी प्रकार के सार्थक आवश्यकीय वस्तुएं कोष के रूप में सतत्-सतत् बनाए रखना कोष कार्य का गति है। कोष विनिमय को संतुलित बनाये रखता है। फलस्वरूप श्रम मूल्य का मूल्यांकन कला मूल्य और उपयोगिता मूल्य के आधार पर संपन्न होना पाया जाता है जिसके आधार पर हर परिवार अपने समृद्धि को व्यक्त करने में समर्थ हो पाता है।
परिवार में स्वायत्त मानव का ही भागीदारी होना जागृत परंपरा सहज गतिविधि है। इसका संपूर्ण गति व्यवस्था सहज पाँचों आयामों में होना पाया जाता है। परिवार मानव ही व्यवस्था और समाज का बीज रूप होना देखा गया। स्वायत्त मानव जागृति पूर्ण परंपरा सहज शिक्षा-संस्कार का फलन के रूप में होना देखा गया। स्वायत्त मानव परिवार मानव के रूप में प्रमाण है। परिवार मानव ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का बीजरूप है यही मुख्य बिन्दु है। इसी आधार पर मौलिक अधिकारों का प्रयोग सर्व सहज अभिव्यक्ति संप्रेषणा, प्रकाशन, अनुभव, बोध, व्यवहार और व्यवस्था के रूप में स्पष्ट हो जाता है। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि राज्य और धर्म एक दूसरे के पूरक होते हैं; समाज ही धर्म का स्वरूप है; व्यवस्था ही राज्य है; धर्म का संतुलन राज्य से, राज्य का संतुलन धर्म से होना स्पष्ट किया जा चुका है। धर्म का स्वरूप ही अखण्ड समाज है। अखण्ड समाज सूत्र से सूत्रित परिवार है। इस विधि से जागृत परिवार सूत्र से सूत्रित अखण्ड समाज है। इसी प्रकार परिवार अपने में एक व्यवस्था, प्रसन्नता और उत्साह का मुखरण है। ऐसी मुखरण समाधान-समृद्धि का फलन होना देखा गया है।