व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
संतुलन आवश्यक है। इसकी आवर्तनशीलता में ही उत्पादन कार्य में सफलता, गुणवत्ता और शीघ्रता का संयोग होना पाया जाता है; यही सफलता के अनन्तर पुनः सफलता की ओर गति है।
हर परिवार में संपादित किया गया उत्पादित वस्तुओं को विनिमय-कोष विधि से गतित होना एक अनिवार्य स्थिति है। संपादन का तात्पर्य पूर्णता और उसकी निरंतरता के अर्थ में अर्पण, समर्पण सहज उपयोगी वस्तुओं से है। विनिमय का कार्यरूप और गतिरूप किसी एक वस्तु के स्थान पर दूसरी वस्तु को प्राप्त कर लेने का क्रियाकलाप है। ऐसे क्रियाकलाप के लिए भंडारण एक आवश्यकीय प्रक्रिया है। हर ग्राम में उसकी आवश्यकता के अनुरूप भंडारण विधि को, प्रक्रिया को और तादाद को पहचानते हुए विनिमय कार्य को गति प्रदान करना भी व्यवस्था और व्यवस्था गति का एक आयाम होना पाया जाता है। ऐसे विनिमय कार्य में स्वाभाविक रूप में आधार सूत्र श्रम नियोजन के आधार पर वस्तु मूल्य को पहचानने की विधि से श्रम मूल्य का ही विनिमय करना मानव सहज होना देखा गया है। इसी क्रम में संपूर्ण मानव परिवार विनिमय कार्य को निर्वाह करने का अवसर, आवश्यकता और उसका प्रयोजन सार्थक होता है। विनिमय कार्य सार्थक होने का तात्पर्य लाभ-हानि मुक्त विधि से प्रत्येक वस्तु श्रम मूल्य सहज विधि से मूल्यांकन सहित आदान-प्रदान होने से है। प्रत्येक मानव अपना शोषण नहीं चाहता है, इस प्रकार सर्वमानव शोषण नहीं चाहता है। जागृति पूर्वक लाभ-हानि मुक्त विनिमय व्यवस्था सार्थक होता है। यह मानव परंपरा में मौलिक अधिकार है। हर परिवार अपने आवश्यकता से अधिक उत्पादन, श्रम मूल्य, मूल्यांकन और उभय तृप्ति विधि से विनिमय कार्य को संपन्न करना अर्थात्