व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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है। फलस्वरूप मानवत्व सहित जीने का प्रमाण वर्तमानित होता है। इसी क्रम में तन, मन, धन का सदुपयोग-सुरक्षा स्वाभाविक कार्य होने के कारण सदुपयोग विधि से सुरक्षा प्रमाणित होता है; और सुरक्षा-विधि से सदुपयोग प्रमाणित होता है। यही न्याय-सुरक्षा का, संतुलन का तात्पर्य है। सदुपयोग और सुरक्षा करने की संपूर्ण संभावना, मानव परंपरा में प्राकृतिक ऐश्वर्य के रूप में देखने को मिलता है। प्राकृतिक ऐश्वर्य नैसर्गिकता के रूप में समीचीन है। मानव परंपरा संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था के रूप में समीचीन है। संस्कृति क्रम में शिक्षा-संस्कार ही प्रधान मुद्दा है और सभ्यता में इसी शिक्षा-संस्कार का प्रमाणपूर्वक पोषण विधि प्रमाणित होता है; यह आचरण का ही स्वरूप है। इसी के साथ नैसर्गिकता समीचीनता अपने आप में ऋतु संतुलन के रूप में वर्तमानित रहना ही उसकी सार्थकता है और मानव के लिये अपरिहार्यता है। इसे सुरक्षित रखना मानव का मौलिक अधिकार है। इस प्रकार मानवीयतापूर्ण पद्धति, सभ्यता रूपी मानवीय आचरण ही मौलिक अधिकारों के रूप में विभिन्न आयामों में विभिन्न सार्थक अर्थों में प्रायोजित होना पाया जाता है। इस प्रकार अर्थ का सदुपयोग ही सुरक्षा को प्रमाणित करता है। यही संतुलन का तात्पर्य है। ऐसी न्याय-सुरक्षा क्रम में उत्पादन-कार्य एक आयाम है।

उत्पादन-कार्य प्रणाली, पद्धति, नीति सहज विधि से व्यवस्था का अंगभूत होना पाया जाता है। उत्पादन-कार्य के मूल में पायी जाने वाली समझदारी, उसमें नियोजित होने वाली संपूर्ण प्रकार की तकनीकी, विधि कार्य अर्थात् क्रियान्वयन के फलन में हर प्रकार के उत्पादनों को सफल बनाना मानव सहज कार्यों में से एक कार्य है। उत्पादन-कार्य विधि से ही सामान्यकांक्षा और महत्वाकांक्षा संबंधी संपूर्ण वस्तु या