व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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जाता है। समझने का जो कार्यक्रम है जिसमें समझाने वाली क्रिया समाहित रहती हैं यही संस्कार का कारण है यह अध्ययन पूर्वक सम्पन्न होना पाया जाता है।

शिक्षा-संस्कार ही परस्परता में संतुलन विधि से प्रमाणों का सूत्र और जीने की विधि में उसका व्याख्या स्वाभाविक रूप में संपन्न होता है। यही शिक्षा-शिक्षण और संस्कार में संतुलन का तात्पर्य है अर्थात् हर व्यक्ति में समझा हुआ सभी समझदारी जीने की कला में प्रमाणित होता है। समझदारी का संपूर्ण स्वरूप जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान, व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का होना पाया जाता है। व्यवस्था क्रम में ही न्याय-सुरक्षा अपने में संतुलन को प्रमाणित होना एक अनिवार्यता है। न्याय का स्वरूप संबंध, मूल्य-मूल्यांकन, उभय तृप्ति के रूप में देखने को मिलता है। सुरक्षा का स्वरूप जिसके साथ वस्तुओं का सदुपयोग हुआ रहता है वह उसका सुरक्षा को प्रमाणित किया रहता है। इस क्रिया का मूल स्त्रोत संबंधों में विश्वास ही है। यह अस्तित्व सहज सहअस्तित्व का वैभव है। इससे स्पष्ट है कि जागृत मानव तन, मन, धन सहित ही संपूर्ण संबंधों के साथ प्रमाणित होना पाया जाता है। जागृत मानसिकता का तात्पर्य अनुभवमूलक विधि से कार्य करने, अनुभवगामी विधि से फलित होने का क्रियाकलाप; क्योंकि संपूर्ण अनुभवमूलक क्रियाकलाप स्वाभाविक रूप में अनुभवगामी विधि से आर्वतित होना देखा गया है। अनुभव जीवन सहज परम जागृति का नाम है। इसका संपूर्ण स्वरूप जीवन ज्ञान में परिपूर्णता, अस्तित्व दर्शन ज्ञान में पूर्णता और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में परिपूर्णता के स्वरूप में देखने को मिलता है और भले प्रकार से यह जी कर देखा गया है। अस्तु, मानव परंपरा में