व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

Back to Books
Page 204

उपकरणों को मानव अपने स्वयं प्रेरित विधि से पा लेना ही उत्पादन-कार्य का लक्ष्य है। यही समृद्धि का आधार होना पाया जाता है और स्त्रोत होना भी पाया जाता है। इसमें कार्य और मानसिकता का संतुलन ही सफलता का स्त्रोत है। हर विधा में संतुलन अपने आप में समाधान रूप में गण्य होता है। व्यवस्था का तात्पर्य ही बहुआयामी समाधान, लोकव्यापीकरण, उसकी निरंतरता है। क्योंकि जागृति परंपरा पीढ़ी से पीढ़ी के लिये ही स्थापित और कार्यरत होना स्वाभाविक है और पीढ़ी के बाद पीढ़ी में भागीदारी के लिये अर्पित हर मानव संतान जागृति सहज अपेक्षा संपन्न रहता है अर्थात् जीवन जागृति के लिये ही मानव संतान मानव परंपरा में अर्पित होता है। इसे सफल बनाना ही मानव परंपरा का परम उद्देश्य है। फलतः संपूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्य और देश-कालों में मौलिक अधिकार संपन्न होना सहज हो जाता है। फलस्वरूप मौलिक अधिकार का प्रयोग व्यवस्था के रूप में प्रमाणित हो जाता है अथवा व्यवस्था के अंगभूत रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। अस्तित्व में ही शरीर रचना-विरचना क्रम और परमाणु में विकास पूर्वक गठन पूर्णता सहज जीवन प्रतिष्ठा, जागृति क्रम और जागृति विधिवत होना देखने को मिलता है। फलस्वरूप, जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव का वर्तमान पहचानने को मिलता है। मानव परंपरा में जागृति प्रमाणित होना मौलिक अधिकार का मूलसूत्र है। जागृति का प्रमाण हर आयामों में मानव स्वयं स्फूर्त विधि से व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित होना ही है। यही अस्तित्व सहज विधि मानव सहज अपेक्षा का संतुलन है। हर संतुलन आवर्तनशीलता के स्वरूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। अतएव उत्पादन के लिए मानसिकता और कार्य का