व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
व्यवस्था में भागीदारी से है। समृद्धि का तात्पर्य परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन से है। यही विधि से ग्राम परिवार, विश्व परिवार पर्यन्त समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व प्रमाण क्रम में संतुलन और उसकी निरंतरता मानव परंपरा सहज होना निश्चित सम्भावना है, जिसकी आवश्यकता सर्वमानव में होना पाया जाता है। सम्भावनाएं नित्य समीचीन है।
इस प्रकार संतुलन का अर्थ सुस्पष्ट हुआ। इसी क्रम में आदर्शवादियों का ईश्वरवाद, भक्तिवाद, विरक्तिवाद, उपासनातंत्रवादियों के अनुसार संतुलन का जिक्र हुआ है। विरक्ति, भक्ति, ईश्वर और आध्यात्मवादियों ने मोक्ष को संतुलन स्थली माना है। इनके संतुलन का अथवा मुक्ति का तात्पर्य दुःखों से मुक्त होना, ऐसे दुःख मायामोहवश, अज्ञानवश, पापवश, स्वार्थवश होना बताया गया है। विरक्ति, भक्ति, त्याग, वैराग्य, योग, अभ्यास, पूजा, पाठ, प्रार्थना आदि उपायों से दुःख निवृत्ति के लिये मार्ग बताया गया है। ईश्वर, परमात्मा, कृपा से मुक्ति बताए।
पाप मुक्ति के क्रम में पापमुक्ति को निश्चित स्थान, व्यक्ति के सम्मुख किये गये पापों को स्वीकार किया जाना निवारण के लिए विविध उपाय बताया गया है। ऐसे पाप स्वीकृति से पाप कार्यो में प्रवृत्ति क्षीण होगी, ऐसा भी सोचा गया है।
स्वार्थ, दुराव-छुपाव पाप के लिये कारण बताया। स्वार्थी के साथ संग्रह, सुविधा, भोग, अतिभोग, द्वेष यही प्रमुख विकारों को स्वीकारा गया। धार्मिक राजनीति के मूल में संग्रह-सुविधा अर्हता को ईश्वर प्रतिनिधी, राजा राजगद्दी और ईश्वरीय मार्ग-दर्शक एवं ईश्वर प्रतिनिधि के रूप में गुरू को मानते हुए सर्वाधिक संग्रह-सुविधा के लिये हर मानव से अपर्ण