व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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वर्णन भी अतिरहस्यमयी होने के रूप में बताये जाने वाले वांङ्गमय को पावन ग्रन्थों के रूप में माना जाता हैं। ऐसे वांङ्गमय और मान्यताओं, महिमावर्णनों के साथ अनेकानेक व्यक्ति जुड़कर अनेक प्रकार से साधना, अभ्यास करने वाले लोग ही साधु, संत, तपस्वी, यति-सती, सब प्रख्यात हुए हैं। यही महापुरूषों के नाम से भी ख्यात हैं। ईश्वर ही अनेक अवतारों के रूप में, अवतारी पुरूष और अवतारों के नाम से स्थापित हुए। यह सब होने के उपरान्त भी समुदाय और उसकी मान्यताएँ अन्तर्विरोधी - बाह्य विरोधों सहित होना पाया जाता है। अंतर्विरोध का तात्पर्य जिस प्रकार के आदर्श वांङ्गमय - आराधना आदि को मानते हैं उसी में मतभेद होने से है। बाह्य विरोध का तात्पर्य एक-दूसरे को विधर्मी-अधर्मी, श्रेष्ठ-नेष्ठ क्रम में एक दूसरे के बीच दिखने वाली घृणा, उपेक्षा, भय और आतंक साक्षी है। मतभेदों, विरोधों के साथ भय और आतंक का होना स्वाभाविक है। इसके मूल में घृणा उपेक्षा तिरस्कार ये सब कारण है। इन आधारों पर अपने में अपर्याप्त रहते हुए अन्य समुदायों के साथ विरोधों को बनाए रखते हैं। ऐसे ही समुदाय विधि राज्य का आधार है। राज्य भी विरोधों के साथ अर्थात् अड़ोस, पड़ोस देशों को दुश्मन मानते हुए देशवासी गलती करते हैं, ऐसा मानते हुए संविधान में कानून-कायदा प्रक्रियाओं को स्थापित कर लिये हैं। यही मुख्य मुद्दा है कि अन्तर्विरोध, बाह्यविरोध रहते हुए समुदाय-समुदाय के बीच सामरस्यता संगीत हो कैसे?

उक्त सभी प्रकार की विविधताएं राज्य और धर्मगद्दी के रूप में स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो पाते हैं। इन्हीं गद्दियों के कार्यक्रम कार्यवाही के फलस्वरूप अपने में अथवा अपने-अपने में अपरिपूर्णता, अपर्याप्तता के परिणाम में विज्ञान का स्वागत हुआ। इस शताब्दी के पूर्व विज्ञान तकनीकी दूर-दूर