व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
अध्याय - 2
व्यवहारवादी समाजशास्त्र की परिभाषा
परिभाषा - वर्तमान में विश्वास, मौलिक अधिकार पूर्ण विधि से मानव, मानव के साथ पहचाना गया। संबंध में मूल्य मूल्यांकन पूर्वक उभय तृप्ति, परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन में भागीदारी, मूल्य-चरित्र-नैतिकतापूर्ण आचरणपूर्वक, व्यवस्था सहज प्रमाण को प्रस्तुत करते हुये समग्र व्यवस्था में भागीदारी व भागीदारी के प्रति सम्मति का सहज स्वरूप में प्रमाणित होना ही व्यवहारवादी समाज है; और शास्त्र का तात्पर्य शिक्षा-संस्कारपूर्वक ग्रहण योग्य सभी उपक्रम और कार्यप्रणाली है। इस प्रकार व्यवहारवादी समाज व शास्त्र का धारक, वाहक मानव ही होना स्पष्ट है।
विश्वास का तात्पर्य वर्तमान में सर्वतोमुखी समाधान और उसकी निरंतरता से है, सर्वतोमुखी समाधान का तात्पर्य अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन (अस्तित्व में मानव स्वयं अपने अविभाज्यता को दृष्टा पद प्रतिष्ठा रूपी महिमा सहित वर्तमान में होने की स्वीकृति और उसमें दृढ़ता और अस्तित्व ही सहअस्तित्व। सहअस्तित्व में ही विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति, रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना सहज प्रमाणों की स्वीकृति सहित प्रमाणीकरण क्रिया सम्पन्नता) से है। समाज शब्द का अर्थ भी उक्त स्पष्ट परिभाषा और उसके आशयों को पुष्ट करता है यथा पूर्णता के अर्थ में किया गया यत्न सहित गति है। यत्न का तात्पर्य जिस रूप में समाधान और उसकी निरंतरता प्रमाणित होता है। व्यवहार में यत्न को प्रयत्न शब्द का भी प्रयोग किया