व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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जाता है। प्रयत्न का तात्पर्य प्रज्ञा सहित यत्न से है। प्रज्ञा का तात्पर्य फल परिणामों को भले प्रकार से अथवा संपूर्ण प्रकार से जानते हुए, मानते हुए, पहचानते हुए निर्वाह करने की क्रियाकलापों से है। समाज की परिभाषा स्वयं जिन जिन तथ्यों को परंपरा में प्रमाणित करने को इंगित करता है इसे सार्थक बनाने के कार्यक्रमों को सामाजिक कार्यक्रम कहेंगे, क्योंकि हर व्यक्ति समाज परिभाषा का प्रमाण होना एक सर्व स्वीकृति तथ्य है। यह भी इसमें मूल्यवान अथवा आवश्यकीय स्वीकृत है कि मानव ही अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का धारक-वाहक होने योग्य इकाई है, साथ ही इसकी अनिवार्यता भी स्वीकृत है। नैसर्गिक रूप में जागृति नित्य समीचीन है। जागृति वर्तमान में ही प्रमाणित होती है, प्रमाणित करने वाली इकाई केवल मानव है। शुद्धतः इसका मूल रूप मानव अपने स्वत्व रूपी मानवीयता अथवा मानवत्व में, से, के लिए जागृत होना ही है। मानवत्व मानव को स्वीकृत वस्तु है। मानवत्व पूर्वक ही मानव अपने गौरव और वैभव को स्थिर बनाना चाहता है ऐसी मानवत्व की अपेक्षा को विविध प्रकार से मानव व्यक्त करता ही है। इसी क्रम में बहुमुखी अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन होने के आधार पर बहुमुखी कार्य सम्पन्न होना भी एक आवश्यकता रहा है। ऐसी सुदृढ़ आधार पर ही सुदूर विगत से ही कम से कम चार आयामों में अपने परंपरा को बनाये रखे है। जैसा शिक्षा, संस्कार, विधि और व्यवस्था। दूसरे विधि से संस्कृति, सभ्यता, विधि और व्यवस्था है। इसे सभी समुदायों में स्वीकारा हुआ और निर्वाह करता हुआ देखने को मिलता है चाहे सार्थक न हो। इससे सुस्पष्ट हो जाता है भले ही मानव कुल अनेक समुदायों में बंटे क्यों न हो यह चारों अथवा चहुँ दिशावादी परंपरायें सभी देशकाल में सभी समुदाय में देखने